(लेख – तारिक़ अली)
पिछले तीन सप्ताह से पाकिस्तान के सैनिक शासक तालिबान को इस बात के लिए मनाने की कोशिश कर रहे हैं कि वह ओसामा बिन लादेन को पकड़वा दे और उस बरबादी से बच जाए जिस की तैयारी चल रही है। वो नाकामयाब रहे। क्योंकि ओसामा मुल्ला उमर का दामाद है, यह कोई खास आश्चर्य की बात भी नहीं है। अधिक रोचक सवाल यह है कि पाकिस्तान, अपने सैनिकों, अधिकारियों तथा पाइलटों को अफ़ग़ानिस्तान से वापस बुलाने के बाद, तालिबान में फूट डालने में और अपने पर पूरी तरह निर्भर हिस्सों को लौटाने में सफल रहा है या नहीं। सैनिक प्रशासन के लिए काबुल की भावी गठबंधन सरकार में अपना प्रभाव बनाए रखने के लिए यह एक मुख्य उद्देश्य रहा होगा। पाकिस्तान और तालिबान में संबंध इस साल तनावपूर्ण रहे हैं। दोस्ती बढ़ाने की कोशिश के तहत पाकिस्तान ने छः महीने पहले एक फ़ुटबॉल टीम भेजी थी अफ़ग़ानिस्तान के साथ एक दोस्ताना मैच खेलने के लिए। जब दोनों टीमें काबुल के एक स्टेडियम में एक-दूसरे के आमने-सामने थीं, तब सुरक्षा बलों ने उन्हें घेर लिया और घोषणा की कि पाकिस्तानी खिलाड़ी अशोभनीय कपड़े पहने थे। उन्होंने फ़ुटबॉल शॉर्ट्स जबकि अफ़ग़ान टीम ने घुटनों तक लंबे शॉर्ट्स पहन रखे थे। शायद उनका विचार था कि उठती-गिरती पाकिस्तानी जाँघें दर्शकों, जिनमें केवल पुरुष थे, में उथल-पुथल पैदा कर देंगीं। कौन जाने? पाकिस्तानी टीम को गिरफ्तार कर लिया गया, उनका मुंडन कर दिया गया और सार्वजनिक रूप से उन्हें कोड़े लगाए गए जबकि स्टेडियम के दर्शकों से क़ुरान की आयतों का जाप करवाया गया। यह पाकिस्तानी सेना के धनुष के पार वार करने का मुल्ला उमर का तरीका था।
जहाँ तक लाशों का सवाल है, संयुक्त राज्य अमरीका और उसके वफ़ादार साथी ब्रिटेन द्वारा काबुल और कंधहर पर बमवर्षा से तालिबान-घटा-पाकिस्तानी-गुट-जमा-बिन-लादेन के विशेष दस्ते, जिसमें सिर्फ़ ‘अंतर्राष्ट्रीय जिहाद’ वाले अरबवासी हैं, की ताकत पर कोई असर नहीं पड़ा होगा। यह संयुक्त सेना अब 20-25,000 पक्के दिग्गजों से बनी हुई बताई जाती है। फिर भी तालिबान घेर लिए गए हैं और अकेले पड़ गए हैं। उनकी हार निश्चित है। दो महत्वपूर्ण सीमाओं पर पाकिस्तान और ईरान उनके विरुद्ध डटे हुए हैं। उनका कुछ हफ़्तों से ज़्यादा चल पाना मुश्किल होगा। यह भी निश्चित है कि उनकी सेना का कुछ भाग पहाड़ों में चला जाएगा और पश्चिम के लौटने तक इंतज़ार करेगा, और उसके बाद काबुल में स्थापित की जानी वाली नई राजा ज़ाहिर शाह की सरकार पर हमला करेंगे (जिनको अपने आरामदायक रोमन विला से काबुल के मलबे में कम सेहतमंद माहौल में आना होगा, जहाँ होटल इंटरकॉन्टिनेंटल एकमात्र साबुत बची इमारत है)।
जिस उत्तरी गठबंधन की पश्चिम मदद कर रहा है, वो तालिबान से ज़रा सा कम धार्मिक है पर बाकी सब चीज़ों में उसका रिकॉर्ड भी उतना ही गिरा हुआ है। पिछले साल के दौरान उन्होंने हेरोइन के विपणन का काम बड़े स्तर पर हाथ में लिया है, ब्लेयर के इस दावे का मज़ाक बनाते हुए कि यह युद्ध नशे के विरुद्ध भी युद्ध है। ऐसा मानना कि ये लोग तालिबान से बेहतर होंगे हँसी की बात है। उनका पहला स्वाभाविक काम होगा अपने विरोधियों से बदला लेना। वैसे हाल के दिनों में गुलबुदीन हिक़मतयार, जो कभी पश्चिम का प्यारा “स्वाधीनता सेनानी” था जिसका व्हाइट हाउस तथा डाउनिंग स्ट्रीट में रीगन व थैचर के द्वारा स्वागत होता था, के साथ छोड़ने के कारण गठबंधन कुछ कमज़ोर पड़ा है। इस आदमी ने अब काफ़िरों के विरुद्ध तालिबान का समर्थन करने का फ़ैसला किया है। स्थानीय और धार्मिक दुश्मनियों को देखते हुए अफ़ग़ानिस्तान में किसी कठपुतली सरकार को बनाए रख पाना आसान काम नहीं होगा।
एक बड़ी चिंता यह है कि तालिबान, अपने ही देश में किनारे कर दिए जाने और हार चुकने के बाद, पाकिस्तान पर जुट पड़ेंगे और उसके शहरों तथा सामाजिक ढांचे को तबाह कर देंगे। पेशावर, क़्वेटा और करांची शहरों को सबसे ज़्यादा खतरा है। तब तक पश्चिम, हमेशा की तरह, अपनी “जीत” हासिल करके इस तरफ से मुँह मोड़ चुका होगा। जहाँ तक इस ऑपरेशन के घोषित उद्देश्य का सवाल है – ओसामा बिन लादेन को पकड़ना – यह काम इतना आसान नहीं होगा जितना लगता है। वह पामीर के सुदूर पहाड़ों में अच्छी तरह सुरक्षित है और क्योंकि उसके पास अपना रास्ता चुनने के लिए तीन सप्ताह थे, काफी संभावना है कि वह गायब हो जाएगा। फिर भी जीत की घोषणा कर दी जाएगी। पश्चिम अपने नागरिकों की सीमित स्मृति का सहारा लेगा। लेकिन मान लीजिए कि बिन लादेन को पकड़ लिया जाता है और मार दिया जाता है। इससे “आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध” को किस तरह मदद मिलेगी? अन्य व्यक्ति 11 सितंबर की घटनाओं को अलग-अलग तरीके से दोहराने की कोशिश करेंगे। अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि दुनिया का ध्यान मध्य-पूर्व की तरफ मुड़ जाएगा।
सऊदी अरब में राजपरिवार में सत्ता के लिए ज़बरदस्त संघर्ष चल रहा है। मृत्यु शैया पर पड़े राजा फ़हद ने अपने अमले के साथ तीन बड़े विमानों में देश छोड़ कर स्विट्ज़रलैंड की शरण ली, शायद महल में सत्ता-पलट से बचने के लिए। इसके परिणामस्वरूप राजकुमार अब्दुल्ला के हाथ में कमान आ गई और उनके मुख्य विरोधी सुल्तान की ताकत कम हो गई। सऊदी मामलों के विशेषज्ञ ज़ोर देकर यह कह रहे हैं कि राजकुमार वहाबी धर्माधिकारियों के करीब हैं। अगर ऐसा है तब भी उनको भीड़ के गुस्से का सामना करना पड़ेगा। कुछ ऐसी ही हालत होस्नी मुबारक की मिस्र में है। वो भी चिंतित हैं और नाटो-संगठन से अपनी दूरी बना कर रखे हुए हैं, यह ज़ोर देते हुए कि उनकी सेनाओं का उपयोग नहीं किया जाएगा। काहिरा की गलियाँ बहुत गुस्से में हैं। अगर इन दो देशों में कुछ उपद्रव होता है तो वॉशिंगटन के पास एक स्वतंत्र फ़िलीस्तीनी राज्य बनवाने के सिवा कोई चारा नहीं रह जाएगा। फिर भी 11 सितंबर के परिणामों का ब्यौरा दे पाने का समय अभी नहीं आया है।
अनुवादक: अनिल एकलव्य
अनुवाद तारीख: 22 अक्तूबर, 2006