अनुवाद

फ़रवरी 10, 2009

कितना गहरा खोदेंगे हम?

(लेख – अरुंधती रॉय)

अभी हाल ही में एक युवा कश्मीरी मित्र से मेरी बात हो रही थी कश्मीर में जीवन के बारे में। राजनीतिक बिकाऊपन और अवसरवादिता के बारे में, सुरक्षा बलों की असंवेदनशील क्रूरता, हिंसा से सरोबार समाज की रिसती पनपती सीमाओं के बारे में, जहाँ हथियारबंद कट्टरपंथी, पुलिस, गुप्तचर सेवाओं के अधिकारी, सरकारी अफ़सर, व्यापारी, यहाँ तक कि पत्रकार भी एक दूसरे का सामना करते हैं और धीरे-धीरे, समय के साथ, एक दूसरे जैसे बन जाते हैं। उसने बात की अंतहीन हत्याओं के बारे में, ‘खो चुके’ लोगों की बढ़ती हुई संख्या के बारे में, कानाफूसी के बारे में, उन अफ़वाहों के बारे में जिनका कोई जवाब नहीं देता, किसी भी तरह के संबंध की उस विक्षिप्त अनुपस्थिति के बारे में जो होना चाहिए उस सबके बीच जो असल में कश्मीर में हो रहा है, जो कश्मीरी जानते हैं कि हो रहा है और जो हम बाकी लोगों को बताया जा रहा है कि हो रहा है। उसने कहा कि “कश्मीर पहले व्यापार हुआ करता था। अब यह पागलखाना बन गया है।”

उस टिप्पणी के बारे में मैं जितना ही सोचती हूँ, उतना ही मुझे वो पूरे भारत के बारे में उपयुक्त लगती है। हाँ, शायद कश्मीर और उत्तर-पूर्व उस इमारत के अलग हिस्से हैं जिनमें पागलखाने के ज़्यादा खतरनाक वार्ड स्थित हैं। लेकिन प्रमुख भू-भाग में भी ज्ञान और सूचना के बीच, जो हम जानते हैं और जो हमें बताया जाता है उसके बीच, जो छिपाया जाता है और जो दिखाया जाता है उसके बीच, तथ्य और अनुमान के बीच, ‘असली’ और असल-दिखती दुनिया के बीच की खाई अंतहीन अटकलबाज़ी और संभावित विक्षिप्तता की जगह बन गई है। यह एक ऐसा ज़हरीला मिश्रण है जिसे घोला जाता है और पकाया जाता है और एकदम भद्दे, विनाशकारी, राजनीतिक उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल किया जाता है।

हर बार जब कोई कथित ‘आतंकवादी हमला’ होता है, सरकार हाज़िर हो जाती है दोष मढ़ने के लिए, बिना किसी या नाम-मात्र की जाँच-पड़ताल के। गोधड़ा में साबरमती ऐक्सप्रेस का जलाया जाना, 13 दिसंबर को संसद भवन पर आक्रमण, या चित्तीसिंहपुरा में सिखों का क़त्ले-आम तो इनमें से सिर्फ़ कुछ प्रसिद्ध उदाहरण हैं। (जो लोग कथित आतंकवादी घटना के बाद सुरक्षा बलों द्वारा मारे गए थे, पता चला कि वे निर्दोष ग्रामीण थे। राज्य सरकार ने बाद में माना कि डी. एन. ए. जाँच के लिए भेजे गए नमूने फर्जी थे) इनमें से हर मामले में बाद में सामने आने वाले सबूतों ने बहुत परेशान करने वाले सवाल खड़े कर दिए और इसलिए उन्हें तुरंत कबाड़खाने में डाल दिया गया। गोधड़ा का ही मामला लीजिए: जैसे ही यह घटना हुई, गृह मंत्री ने घोषणा कर दी कि यह आई. एस. आई. का षड़यंत्र था। वी. एच. पी. का कहना है कि ये मुसलमानों की भीड़ का काम था जो पेट्रोल बम फेंक रहे थे। कई गंभीर प्रश्न हैं जिनके जवाब नहीं मिलते। अंतहीन अटकलबाज़ी है। हर कोई वही मान रहा है जो वह मानना चाहता है, लेकिन सच-झूठ की परवाह किए बगैर योजनाबद्ध तरीके से इस घटना का इस्तेमाल सांप्रदायिक उन्माद भड़काने के लिए किया जा रहा है।

अमरीकी सरकार ने 11 सितंबर से उपजे झूठों और विकृत सूचनाओं का इस्तेमाल एक नहीं बल्कि दो देशों पर आक्रमण करने के लिए किया – कौन जाने आगे क्या किया जाने वाला है।

भारतीय सरकार भी इसी रणनीति का प्रयोग करती है, लेकिन अपने ही लोगों के विरुद्ध।

पिछले दशक के दौरान पुलिस और सुरक्षा बलों द्वारा मारे गए लोगों की संख्या हज़ारों में है। अभी हाल ही में मुम्बई पुलिस के कई प्रवक्ताओं ने खुले आम प्रेस को बताया कि किस तरह उन्होंने वरिष्ठ अधिकारियों के ‘आदेशों’ पर कई ‘गैंग्सटरों’ को खत्म कर दिया। आंध्र प्रदेश प्रतिवर्ष करीब 200 ‘अतिवादियों’ की ‘मुठभेड़’ में मौतों का औसत काट लेता है। कश्मीर में जहाँ हालत लगभग युद्ध जैसी है, अनुमानतः 80,000 लोग 1989 से अब तक मारे जा चुके हैं। हज़ारों तो एकदम ‘गायब’ हो गए हैं। असोसिएशन ऑफ़ पेरेंट्स ऑफ़ डिसअपिअर्ड पीपुल (ए. पी. डी. पी.) के रिकॉर्डों के अनुसार 2003 में कश्मीर में 3000 से ज़्यादा लोग मारे जा चुके हैं, जिनमें से 463 सैनिक थे। ए. पी. डी. पी. का कहना है कि अक्तूबर 2002 में ‘हीलिंग टच’ लाने के वादे पर मुफ़्ती मुहम्मद सईद सरकार के सत्ता में आने के बाद से 54 लोगों की हिरासत में मौतें हो चुकी हैं। धुआँधार राष्ट्रवाद के इस युग में मारे गए लोगों पर गैंग्सटर, आतंकवादी, उपद्रवी या अतिवादी होने का आरोप लगा देना काफ़ी है, और उनके हत्यारे शान से राष्ट्रीय हित के रक्षक बन कर घूम सकते हैं, बिना किसी जवाबदेही के। अगर यह सच भी हो (जो कि यह निश्चित ही नहीं है) कि मारा गया हर आदमी वास्तव में गैंग्सटर, आतंकवादी, उपद्रवी या अतिवादी था – तो भी हमें यही पता चलता है कि ऐसे समाज में कुछ बुरी तरह ग़लत है जो इतने सारे लोगों से इस तरह के हताशापूर्ण कदम उठवाता है।

अपने ही देश के लोगों को परेशान और आतंकित करने की भारतीय राज्य की प्रवृत्ति को आतंकवाद रोधक कानून (पोटा) बना कर संस्थाबद्ध और पवित्रीकृत कर दिया गया है। इसे 10 राज्यों में लागू भी कर दिया गया है। पोटा को सरसरी तौर पर पढ़ने से ही आप समझ सकते हैं कि यह लगभग नादिरशाही है और सब कुछ समेट लेने वाला है। यह सर्वतोमुखी कानून है जो किसी पर भी इस्तेमाल किया जा सकता है – विस्फोटों के जखीरे के साथ पकड़े गए अल क़ायदा सदस्य से लेकर नीम के पेड़ के नीचे बाँसुरी बजा रहे आदिवासी पर, आप पर या मुझ पर। पोटा की बौद्धिक खासियत यह है कि इसे सरकार जो चाहे बना सकती है। हम उनकी कृपा पर जीते हैं, जो हम पर राज करते हैं। तमिलनाडु में इसका प्रयोग सरकार की आलोचना को दबाने के लिए किया गया है। झारखंड में 3,200 लोगों, जिनमें अधिकतर माओवादी करार दिए गए गरीब आदिवासी हैं, का नाम पोटा के अंतर्गत एफ़. आई. आर. में दर्ज किया गया है। पूर्वी उत्तर प्रदेश में इस कानून का उपयोग उन लोगों को कुचलने के लिए किया जा रहा है जो ज़मीन और रोज़गार के अपने अधिकारों के लिए विरोध प्रदर्शन करने की हिम्मत कर रहे हैं। गुजरात और मुम्बई में इसका इस्तेमाल सिर्फ मुसलमानों के विरुद्ध किया जा रहा है। गुजरात में 2002 के राज्य प्रायोजित सामूहिक हत्याकांड, जिसमें करीब 2000 मुसलमानों की हत्या की गई थी और 150,000 को बेघर कर दिया गया था, 287 लोगों पर पोटा के अंतर्गत आरोप लगाए गए हैं। इनमें से 286 मुसलमान हैं और एक सिख है! पोटा के अंतर्गत पुलिस हिरासत में लिए गए इकबालिया बयानों को न्यायिक प्रमाण माना जाएगा। प्रभावी तौर पर इसका मतलब है पुलिस की जाँच पड़ताल की जगह पुलिस की यातना ले लेगी। यह तरीका जल्दी और यकीनी परिणाम देनेवाला है। सरकारी खर्चे को कम करने का इससे बेहतर तरीका क्या हो सकता है।

पिछले महीने मैं पोटा पर एक जन न्यायाधिकरण की सदस्य थी। दो दिन तक हमने अपने अद्भुत जनतंत्र में जो कुछ होता है उसके बारे में बयान सुने। मुझे आपको विश्वास दिलाना पड़ेगा कि हमारे पुलिस स्टेशनों में इसका मतलब है सब कुछ – लोगों को ज़बरदस्ती पेशाब पिलाए जाने से लेकर उन्हें निर्वस्त्र किया जाना, अपमानित किया जाना, बिजली के झटके दिए जाना, सिगरेट के टुकड़ों से जलाया जाना, उनके गुदा में लोहे की छड़ें घुसाए जाना और लातों से इस हद तक पीटा जाना कि मौत हो जाए।

देश में जगह-जगह सैकड़ों लोगों को, जिनमें बहुत छोटे बच्चे भी शामिल है, को पोटा के अंतर्गत क़ैद किया गया है और बिना ज़मानत के क़ैद रखा जा रहा है, उन पोटा न्यायालयों में मुकद्दमा चलाए जाने के इंतज़ार में जो सार्वजनिक निरीक्षण के लिए खुले नहीं हैं। पोटा के अंतर्गत जिन पर मामले दर्ज किए गए हैं उनमें से अधिकतर दो में से एक अपराध के दोषी हैं। या तो वे गरीब हैं – ज़्यादातर दलित और आदिवासी। या फिर वे मुसलमान हैं। पोटा ने आपराधिक कानून की सर्वसम्मत उक्ति को उलट कर रख दिया है – कि कोई व्यक्ति तब तक निर्दोष है जब तक उसे दोषी साबित नहीं कर दिया जाता। पोटा के अंतर्गत आपको तब तक ज़मानत नहीं मिल सकती जब तक आप खुद को निर्दोष नहीं साबित कर देते – एक ऐसे अपराध का जिसका आप पर औपचारिक रूप से आरोप भी नहीं लगाया गया है। असल में इसका मतलब है कि आपको साबित करना है कि आप निर्दोष हैं चाहे आप यह भी न जानते हों कि आपको किस अपराध का दोषी माना गया है। और यह हम सभी पर लागू होता है। तकनीकी तौर पर हम एक देश हैं जो कभी भी आरोपित किया जा सकता है। यह समझना नादानी होगी कि पोटा का ‘दुरुपयोग’ किया जा रहा है। सच्चाई इसके बिल्कुल विपरीत है। इसे ठीक उन्हीं उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है जिनके लिए इसे बनाया गया था। वैसे यह सही है कि अगर मलीमत समिति की सिफारिशें मान ली जाती हैं तो पोटा जल्दी ही अनावश्यक हो जाएगा। मलीमत समिति की सिफारिश है कि कुछ मायनों में सामान्य कानून को पोटा के प्रावधानों के अनुरूप ढाला जा सकता है। ऐसा होने पर कोई अपराधी नहीं होगा। सभी आतंकवादी होंगे। बड़ी साफ-सुथरी बात है।

आज जम्मू और कश्मीर में तथा कई उत्तर पूर्वी राज्यों में सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (ए. एफ़. एस. पी. ए.) सेना के न सिर्फ अफसरों बल्कि जूनियर कमीशंड और नॉन-कमीशंड अफसरों को भी यह अधिकार दिए हुए है कि वो शांति भंग करने या हथियार रखने के शक के आधार पर किसी भी व्यक्ति पर ताकत का प्रयोग (जान लेने तक) कर सकते हैं। शक के आधार पर! भारत में रहने वाले किसी भी व्यक्ति को भ्रम नहीं हो सकता कि इसके माने क्या हैं। यातना दिए जाने, गायब कर दिए जाने, हिरासती मौतों, बलात्कारों और सामूहिक बलात्कारों (सुरक्षा बलों द्वारा) के दस्तावेज़ आपका खून बर्फ कर देने के लिए काफी हैं। इस सबके बावजूद अगर भारत की अंतर्राष्ट्रीय समुदाय और अपने ही मध्य वर्ग में एक वैध जनतंत्र होने की साख बनी हुई है तो यह एक शानदार सफलता है।

सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून उस अधिनियम का ही एक अधिक कड़ा रूप है जिसे लॉर्ड लिनलिथगो ने 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन से निपटने के लिए लागू किया था। 1958 में इसे मणिपुर के उन क्षेत्रों में लागू किया गया जिन्हें ‘अशांत क्षेत्र’ घोषित किया गया था। 1965 में पूरे मिज़ोरम को, जो तब असम का ही भाग था, ‘अशांत क्षेत्र’ घोषित कर दिया गया। 1972 में अधिनियम को त्रिपुरा तक लागू कर दिया गया। 1980 तक आते-आते पूरे मणिपुर को ‘अशांत क्षेत्र’ घोषित कर दिया गया था। कोई इससे ज़्यादा क्या प्रमाण चाहता है यह मानने के लिए कि दमनकारी कदमों का उल्टा असर होता है और उनसे समस्या बढ़ती ही है।

जनता का दमन करने और उनकी जान लेने की इस अशोभनीय आतुरता के दूसरी तरफ है उन मामलों में जाँच करने और मुकद्दमा चलाने की भारतीय राज्य की अनिच्छा, जो किसी से छिपी नहीं है, जिनमें सबूतों की कोई कमी नहीं है – 1984 में दिल्ली में 3000 सिखों की हत्याएँ; 1993 में मुंबई में और 2002 में गुजरात में मुसलमानों की हत्याएँ (एक भी मामले में किसी को सज़ा नहीं मिली!); कुछ साल पहले जे. एन. यू. विद्यार्थी संघ के पूर्व अध्यक्ष चंद्रशेखर की हत्या; बारह साल पहले छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चे के शंकर गुहा नियोगी की हत्या आदि तो कुछ ही उदाहरण हैं। चश्मदीद गवाहों के बयान और दोष साबित करने वाले ढेर सारे प्रमाण भी काफी नहीं होते जब राज्य का पूरा ताम-झाम आपके विरुद्ध डटा हुआ हो।

इसी बीच निगमी अखबारों से अर्थशास्त्री जयघोष करते हुए हमें बता रहे हैं कि जी. डी. पी. वृद्धि दर असाधारण है, अपूर्व है। दुकानें उपभोग की सामग्री से भरी पड़ी हैं। सरकारी गोदाम अनाज रखने के लिए कम पड़ रहे हैं। इस प्रकाश चक्र के बाहर, कर्ज़ में डूबे हुए किसान सैकड़ों में आत्महत्या कर रहे हैं। भुखमरी और कुपोषण की खबरें देश भर से आ रही हैं। फिर भी सरकार ने 6.3 करोड़ टन अनाज को गोदामों में सड़ने के लिए छोड़ रखा है। 1.2 करोड़ टन अनाज को ऐसी रियायती दरों पर निर्यात किया गया जिन पर सरकार भारत के गरीबों को अनाज बेचने के लिए तैयार नहीं थी। प्रसिद्ध कृषि अर्थशास्त्री उत्स पटनायक ने पिछले लगभग सौ वर्षों के सरकारी आँकड़ों के आधार पर भारत में अनाज की उपलब्धता और उपभोग की गणना की है। उनकी गणना के अनुसार नब्बे के दशक की शुरुआत से लेकर 2001 के बीच अनाज का उपभोग दूसरे विश्व युद्ध के स्तरों, जिनमें बंगाल का वह अकाल भी शामिल है जिसमें 30 लाख लोग भूख से मारे गए थे, से भी नीचे गिर गया है। जैसा कि हम प्रोफेसर अमार्त्य सेन के काम से जानते हैं, जनतंत्रों में भुखमरी से हुई मौतों को आसानी से सहन नहीं किया जाता। उनके बारे में ‘मुक्त प्रेस’ बहुत प्रचार कर देती है।

इसलिए कुपोषण के खतरनाक स्तर और स्थाई भूख बेहतर विकल्प हैं। तीन साल से कम उम्र के 47% बच्चे कुपोषण का शिकार हैं, 46% का शारीरिक विकास अवरुद्ध है। उत्स पटनायक का ही अध्ययन बताता है कि भारत की लगभग 40% ग्रामीण जनसंख्या का अनाज उपभोग अफ्रीका के उप-सहारा क्षेत्र के स्तरों पर है। आज एक औसत ग्रामीण परिवार 1990 की तुलना में प्रतिवर्ष लगभग 100 किग्रा खाना कम खा रहा है। पिछले पाँच सालों में शहरी-ग्रामीण आय की विषमता में जितनी भयंकर वृद्धि हुई है, उतनी तो स्वतंत्रता के बाद कभी नहीं हुई। लेकिन शहरी भारत में आप जहाँ भी जाएँ, दुकानें, रेस्तराँ, रेल्वे स्टेशन, हवाई अड्डे, जिम्नेज़ियम, अस्पताल, सब जगब आप को टी. वी. मॉनिटर दिखेंगे जिनमें चुनावी आश्वासन पूरे किए भी जा चुके हैं। भारत चमचमा रहा है, आनंद में है। आपको बस इतना करना है कि किसी की पसलियों को कुचलते हुए पुलिस के जूते की दहलाने वाली कड़कड़ाहट की तरफ से अपने कान बंद कर लें, आपको बस अपनी आँखें दरिद्रता से, झुग्गी झोंपड़ियों से, सड़कों पर दिखने वाले फटीचर लोगों से ऊपर उठानी हैं और एक टी. वी. मॉनिटर ढूँढना है और आप उस खूबसूरत दूसरी दुनिया में पहुँच जाएंगे। बॉलीवुड की स्थाई लटकों-झटकों की नाचती गाती दुनिया, सुविधाभोगी, तिरंगा लहराते और खुश महसूस करते स्थाई रूप से खुश भारतीयों की दुनिया। यह बताना दिनों-दिन मुश्किल होता जा रहा है कि कौन सी दुनिया असली दुनिया है और कौन सी असल-दिखती दुनिया है। पोटा जैसे कानून टी. वी. के बटनों की तरह हैं। इनका इस्तेमाल आप गरीबों, आनंद में खलल डालने वालों, अनचाहे लोगों को स्विच ऑफ़ करने के लिए कर सकते हैं।

भारत में एक नई तरह का अलगाववादी आंदोलन चल रहा है। क्या हम इसे नव अलगाववाद कहें? यह पुराने अलगाववाद का ठीक उल्टा है। यह तब होता है जब वे लोग जो एक बिल्कुल ही अलग अर्थव्यवस्था के भाग हैं, एक बिल्कुल ही अलग देश, एक बिल्कुल ही अलग ग्रह के निवासी हैं, यह जताते हैं कि वे इसके भाग हैं। यह एक ऐसा अलगाववाद है जिसमें लोगों का एक अपेक्षाकृत छोटा सा वर्ग असाधारण रूप से संपन्न बन जाता है सब कुछ हथिया कर – ज़मीन, नदियाँ, पानी, स्वत्रंता, सुरक्षा, सम्मान, विरोध प्रदर्शन के अधिकार सहित सभी मौलिक अधिकार – लोगों के एक बड़े वर्ग से छीन कर। यह ऊर्ध्व अलगाववाद है, क्षैतिज या क्षेत्रीय नहीं। यही वास्तविक संरचनात्मक समायोजन (स्ट्रक्चरल ऐड्जस्टमेंट) है – वैसा जो इंडिया शाइनिंग को इंडिया से अलग करता है। इंडिया प्रा. लि. को इंडिया (सार्वजनिक उपक्रम) से अलग करता है।

यह ऐसा अलगाववाद है जिसमें सार्वजनिक बुनियादी ढाँचे, उत्पादक सार्वजनिक संपत्ति – पानी, बिजली, यातायात, दूरसंचार, स्वास्थ्य सेवाएँ, शिक्षा, प्राकृतिक संसाधन – संपत्ति जिसे भारतीय राज्य कथित रूप से उस जनता की धरोहर के तौर पर रखता है जिसका वह प्रतिनिधित्व करता है, संपत्ति जो दशकों में सार्वजनिक पैसे से बनाई गई है और उसी पैसे से उसका रख-रखाव किया गया है – को राज्य द्वारा निजी निगमों को बेच दिया जाता है। भारत में 70 प्रतिशत जनता – सत्तर करोड़ लोग – ग्रामीण क्षेत्रों में रहते हैं। उनके रोज़गार प्राकृतिक संसाधनों तक उनकी पहुँच पर निर्भर करते हैं। इनको छीन लिए जाने और निजी कंपनियों को बिकाऊ माल की तरह बेच दिए जाने का परिणाम हो रहा है बर्बरता की हद तक बेदखली और दरिद्रीकरण।

इंडिया प्रा. लि. कुछ निगमों और प्रमुख बहुराष्ट्रीय कंपनियों की संपत्ति बनने के लिए तैयार हो रहा है। इन कंपनियों के सी. ई. ओ. इस देश को, इसके बुनियादी ढाँचे को, इसके संसाधनों को, इसके मीडिया और पत्रकारों को नियंत्रित करेंगे, लेकिन इस देश की जनता की तरफ उनकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं होगी। वे जवाबदेही से बिल्कुल परे हैं – कानूनी तौर पर, सामाजिक तौर पर, नैतिक तौर पर, राजनैतिक तौर पर। जो लोग यह कहते हैं कि भारत में इन सी. ई. ओ. में से कुछ प्रधान मंत्री से भी अधिर ताकतवर हैं, जानते हैं कि वो क्या कह रहे हैं।

इसके आर्थिक महत्व से परे भी, अगर इसे वो सब मान भी लिया जाए जो इसे बना के दिखाया जा रहा है (जो कि यह है नहीं) – चमत्कारी, दक्ष, अद्भुत वगैरह – क्या इसकी राजनीति हमें स्वीकार है? अगर भारतीय राज्य अपनी ज़िम्मेदारियों को मुठ्ठी भर निगमों के पास गिरवी रखने का निर्णय ले भी लेता है, तो क्या इसका मतलब है कि चुनावी राजनीति का यह जो रंगमंच हमारे सामने अपने पूरे शोर शराबे के साथ खुल रहा है बिल्कुल बेमतलब है? या इसकी अब भी कोई भूमिका बची है?

मुक्त बाज़ार (जो कि असल में मुक्ति से बहुत दूर है) को राज्य की ज़रूरत है और बहुत सख्त ज़रूरत है। जैसे-जैसे अमीरों और गरीबों के बीच की खाई बढ़ रही है, गरीब देशों की सरकारों के लिए नया काम तैयार होता जा रहा है। मोटा लाभ दे सकने वाले ‘आशिकाना सौदों’ – स्वीटहार्ट डील्स – की खोज में घूम रहे निगम इन सौदों को बिना सरकारी तंत्र की सक्रिय साँठ-गाँठ के स्वीकार नहीं करवा सकते और न ही इन परियोजनाओं का प्रशासन कर सकते हैं। आज निगमीय वैश्वीकरण को गरीब देशों में ज़रूरत है वफ़ादार, भ्रष्ट, संभव हो तो तानाशाह सरकारों की, ताकि अलोकप्रिय सुधारों को थोपा जा सके और विप्लवों को कुचला जा सके। इसी को ‘निवेश के लिए अच्छा वातावरण बनाना’ कहते हैं। जब हम इन चुनावों में वोट डालेंगे तो हम उस राजनीतिक पार्टी को चुनने के लिए वोट डाल रहे होंगे जिसके हाथ में हम राज्य की सारी ज़ोर-ज़बरदस्ती वाली, दमनकारी शक्तियों का निवेश करना चाहेंगे।

अभी इस समय भारत में हमें नव-उदारवादी पूंजीवाद और सांप्रदायिक नव-फ़ासीवाद की मिली जुली खतरनाक धाराओं से निपटना है। पूंजीवाद शब्द ने तो अब तक अपनी चमक पूरी तरह खोई नहीं है, पर फ़ासीवाद शब्द पर अक्सर आपत्ति की जाती है। तो हमें अपने-आप से पूछना पड़ेगा कि क्या हम इस शब्द का सही इस्तेमाल कर रहे हैं? क्या हम अपनी परिस्थिति को बढ़ा-चढ़ा कर पेश कर रहे हैं, क्या हम रोज़ जिसका सामना करते हैं उसे फ़ासीवाद कहा जा सकता है?

जब कोई सरकार लगभग खुलेआम एक अल्पसंख्यक समुदाय के सदस्यों के विरुद्ध हत्याकांड का समर्थन करती है जिसमें दो हज़ार लोग क्रूरता से मार दिए जाते हैं, तब क्या हम इसे फ़ासीवाद कह सकते हैं? जब उस समुदाय की औरतों के साथ सार्वजनिक तौर पर बलात्कार करके उन्हें ज़िंदा जला दिया जाता है, तब क्या यह फ़ासीवाद है? जब हाकिमों की साँठ-गाँठ यह सुनिश्चित करने के लिए हो कि इन अपराधों के लिए किसी को सज़ा न मिले, तब क्या यह फ़ासीवाद है? जब 150,000 लोगों को उनके घरों से खदेड़ कर बाहर कर दिया जाए, दड़बों में रहने के लिए मज़बूर किया जाए और उनका राजनीतिक बहिष्कार किया जाए, तब क्या यह फ़ासीवाद है? जब देश भर में घृणा शिविर चलाने वाली संस्था को प्रधान मंत्री, गृह मंत्री, न्याय मंत्री, निवेश मंत्री का आदर और सम्मान हासिल हो, तब क्या यह फ़ासीवाद है? जब चित्रकारों, लेखकों, विद्वानों और फिल्म निर्माताओं को गरियाया जाए, धमकाया जाए, और उनके काम को जलाया, प्रतिबंधित किया जाए, नष्ट किया जाए, तब क्या यह फ़ासीवाद है? जब कोई सरकार विद्यालयों की पाठ्यपुस्तकों में मनचाहे बदलाव करने के लिए फ़तवा जारी करे, तब क्या यह फ़ासीवाद है? जब प्राचीन ऐतिहासिक दस्तावेज़ों को भीड़ जलाने लगे, जब हर कोई छुटभैया राजनीतिज्ञ मध्य युग का व्यावसायिक इतिहासकार और पुरातत्वविद् होने का ढोंग करने लगे, जब पूरी मेहनत लगा कर किए गए अध्ययन को भीड़ के आधारहीन दावे का प्रयोग करके गलत ठहरा दिया जाए, तब क्या यह फ़ासीवाद है? जब हत्या, बलात्कार, लूटमार और भीड़ के न्याय को सत्ताधारी राजनीतिक दल तथा उसकी छाप के बुद्धिजीवियों का समर्थन मिले, सदियों पहले के वास्तविक या काल्पनिक अत्याचारों के उचित बदले के नाम पर, तब क्या यह फ़ासीवाद है? जब मध्य वर्ग और जमे हुए सुरक्षित लोग च-च करके अपने रास्ते चलते रहें, तब क्या यह फ़ासीवाद है? जब इस सब की अध्यक्षता करने वाले प्रधान मंत्री को महान नेता और स्वप्नदर्शी-दूरदर्शी कहा जाए, तब क्या हम भरे-पूरे फ़ासीवाद की बुनियाद नहीं रख रहे हैं?

दलित और हराए हुए लोगों का इतिहास अधिकांशतः अलिखित रहना कोई ऐसा सर्वज्ञात सत्य नहीं है जो केवल सवर्ण हिंदुओं पर लागू नहीं होता। अगर ऐतिहासिक अत्याचारों का बदला लेना ही हमारा चुना हुआ रास्ता है, तब तो निश्चित ही भारत के दलितों और आदिवासियों को मनमानी हद तक हत्याएँ, लूटमार और विनाश करने का अधिकार है?

रूस में कहा जाता है कि अतीत के बारे में अंदाज़ा लगाना मुश्किल है। भारत में इतिहास की स्कूली पाठ्यपुस्तकों के बारे में हमारे हाल ही के अनुभवों से हम जानते हैं कि यह कितना सही है। अब सभी ‘छद्म धर्मनिरपेक्षतावादियों’ की यह हालत हो गई है कि वे उम्मीद कर रहे हैं कि बाबरी मस्जिद की खुदाई करने वाले पुरातत्वविदों को राम मंदिर के अवशेष न मिल जाएँ। लेकिन अगर यह सही भी है कि हिंदुस्तान की हर मस्जिद के नीचे एक हिंदू मंदिर है तो उस मंदिर के नीचे क्या था? शायद किसी और भगवान का एक और हिंदू मंदिर। या शायद एक बौद्ध स्तूप। सबसे ज़्यादा संभावना तो एक आदिवासी धर्मस्थल की है। इतिहास सवर्ण हिंदू धर्म से तो शुरू हुआ नहीं था, या हुआ था? कितना गहरा खोदेंगे हम? कितना इतिहास पलटेंगे हम? और ऐसा क्यों है कि जिस समय मुस्लिमों को, जो कि सामाजिक, सांस्कृतिक तथा आर्थिक रूप से भारत के अभिन्न अंग हैं, को बाहरी कहा जाता है और क्रूरता से निशाना बनाया जाता है, उसी समय सरकार एक अन्य ऐसी सरकार से निगमी सौदों और विकास के लिए ठेकों पर दस्तखत करने में व्यस्त है जिसने हमें सदियों गुलाम बना कर रखा था। 1876 से 1892 के बीच, भयंकर अकालों के दौरान, दसियों लाख भारतीय भूख से मौत का शिकार हुए लेकिन ब्रिटिश सरकार ने इंग्लैंड को खाद्य पदार्थों तथा कच्चे माल का निर्यात जारी रखा। ऐतिहासिक दस्तावेजों के अनुसार यह संख्या 1.2 करोड़ से 2.9 करोड़ के बीच थी। बदले की राजनीति में इसकी भी कहीं गिनती होनी चाहिए या नहीं? या फिर बदला लेने का मज़ा तब ही है जब शिकार कमज़ोर हो और उसको निशाना बनाना आसान हो?

सफल फ़ासीवाद में मेहनत लगती है। ‘निवेश के लिए अच्छा वातावरण बनाने’ में भी मेहनत लगती है। क्या दोनों साथ मिल कर काम कर सकते हैं? ऐतिहासिक तौर पर निगमों को फ़ासीवादियों से परहेज नहीं रहा है। सीमेंस, आई. जी. फ़ार्बेन, बेयर, आई. बी. एम., और फ़ोर्ड ने नाज़ियों के साथ व्यापार किया था। हमारे पास हाल ही का उदाहरण है जिसमें कन्फ़ेडरेशन ऑफ़ इंडियन इंडियन इंडस्ट्री (सी. आई. आई.) ने 2002 के हत्याकांड के बाद गुजरात सरकार के सामने खुद को झुका दिया। जब तक हमारे बाज़ार खुले रहें, थोड़ा बहुत देसी फ़ासीवाद बढ़िया व्यापारिक सौदों के आड़े नहीं आएगा।

बड़ी रोचक बात है कि ठीक उसी समय जब मनमोहन सिंह, तत्कालीन वित्त मंत्री, भारतीय बाज़ारों को नव-उदारवाद के लिए खोल रहे थे, तभी एल. के. अडवाणी अपनी पहली रथयात्रा कर रहे थे, सांप्रदायिक उन्माद को हवा देते हुए और हमें नव-फ़ासीवाद के लिए तैयार करते हुए। दिसंबर 1992 में हिंसात्मक भीड़ ने बाबरी मस्जिद को ढहा दिया। 1993 में महाराष्ट्र की कांग्रेस सरकार ने ऐनरॉन के साथ बिजली खरीदने के एक समझौते पर हस्ताक्षर किए। यह भारत की पहली निजी विद्युत परियोजना थी। ऐनरॉन परियोजना ने, चाहे यह कितनी भी बरबाद साबित हुई हो, भारत में निजीकरण के युग की शुरुआत कर दी। अब, जबकि कांग्रेस सत्ता के बाहर होकर शिकायत कर रही है, भाजपा ने उसके हाथ से मशाल छीन ली है। सरकार एक असाधारण युगल ऑर्केस्ट्रा चला रही है। एक तरफ जहाँ एक हाथ देश की संपत्ति को टुकड़े-टुकड़े करके बेच रहा है, वहीं दूसरा, ध्यान बँटाने के लिए, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का रेंकता, रंभाता, पगलाया हुआ कोरस आयोजित कर रहा है। एक प्रक्रिया की अडिग क्रूरता सीधे दूसरे की विक्षिप्तता के लिए ईंधन का काम कर रही है।

आर्थिक रूप से भी यह युगल ऑर्केस्ट्रा एक व्यावहारिक मॉडल है। अंधाधुंध निजीकरण की प्रक्रिया से पैदा किए गए लाभ (और ‘इंडिया शाइनिंग’ से अर्जित धन) का एक हिस्सा हिंदुत्व की विशाल सेना का पोषण करने में जाता है – आर. एस. एस., वी. एच. पी., बजरंग दल, और असंख्य अन्य परोपकारी संस्थाएँ आदि जो स्कूल, अस्पताल तथा समाज सेवा का काम करती हैं। इन सबकी मिला कर दसियों हज़ार शाखाएँ देश भर में फैली हैं। वो जिस घृणा का प्रचार करती हैं, वह निगमीय वैश्वीकरण परियोजना की बेरहम बेदखली और दरिद्रीकरण से उपजे अप्रबंधनीय आक्रोश से मिल कर गरीब की गरीब पर हिंसा को बढ़ावा देती है – जो कि ताकत पर आधारित इमारत को बनाए रखने और किसी भी चुनौती से दूर रखने के लिए आदर्श कवच है।

लेकिन लोगों के आक्रोश को हिंसा में बदल देना काफी नहीं है। ‘निवेश के लिए अच्छा वातावरण बनाने’ के लिए राज्य को अक्सर सीधे हस्तक्षेप करना पड़ता है।

हाल के वर्षों में पुलिस ने बार-बार निहत्थे लोगों पर, ज़्यादातर आदिवासियों पर, शांतिपूर्ण प्रदर्शनों के दौरान गोली चलाई है। नागरनार, छत्तीसगढ़ में; मेंहदीखेड़ा, मध्य प्रदेश में; मुथंगा, केरल में; लोग मारे गए हैं।

जब गरीबों की, और खास तौर से दलित एवं आदिवासी संप्रदायों की, बात आती है, उन्हें वन भूमि पर अवैध कब्ज़ा करने के लिए भी मारा जाता है, और (मुथंगा) तब भी जब वे वन भूमि को बाँधों, खनन, इस्पात संयंत्रों (कोएल कारो, नागरनार) से बचाने की कोशिश कर रहे होते हैं। दमन चलता जाता है, चलता जाता है – जंबूद्वीप, काशीपुर, मैकंज।

पुलिस द्वारा गोली चलाने के लगभग हर मामले में जिन लोगों पर गोली चलाई गई उन्हें उग्रवादी कह दिया जाता है।

जब शिकार शिकार बनने से मना कर देते हैं तो उन्हें आतंकवादी कहा जाता है और उनसे उसी तरह पेश आया जाता है। पोटा असहमति की बीमारी के लिए व्यापक प्रभाव वाली कीटाणुनाशक दवा है। अन्य, अधिक स्पष्ट कदम भी उठाए जा रहे हैं – अदालती फ़ैसले जो प्रभावी तौर पर विचार व्यक्त करने की स्वतंत्रता, हड़ताल करने के अधिकार, जीवन और रोज़गार के अधिकार को सीमित कर रहे हैं। बच निकलने के रास्ते बंद किए जा रहे हैं। इस साल 181 देशों ने संयुक्त राष्ट्र में ‘आतंकवाद से युद्ध’ के युग में मानव अधिकारों की रक्षा बढ़ाने के लिए वोट दिया। अमरीका तक ने इसके पक्ष में मत डाला। भारत ने मतदान में हिस्सा नहीं लिया। मानव अधिकारों पर पूरे ज़ोर शोर से हमला करने के लिए माहौल तैयार किया जा रहा है।

तो सामान्य लोग अधिकाधिक हिंसात्मक होते राज्य के प्रहारों को कैसे रोकें?

अहिंसात्मक संघर्ष के लिए उपलब्ध जगह सिकुड़ के रह गई है। वर्षों तक संघर्ष करने के बाद कई अहिंसात्मक जन आंदोलनों के सामने जैसे एक दीवार आकर खड़ी हो गई है और वे अनुभव कर रहे हैं, और सही अनुभव कर रहे हैं कि उन्हें अब दिशा बदलनी पड़ेगी। किस दिशा में जाना चाहिए, इस पर विचारों का ध्रुवीकरण हो गया है। कुछ हैं जो मानते हैं कि सशस्त्र संघर्ष ही एकमात्र रास्ता बचा है। कश्मीर और उत्तर पूर्व को छोड़ते हुए, विशाल भू-भाग, झारखंड, बिहार, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में पूरे के पूरे ज़िले इस विचार को मानने वाले लोगों के नियंत्रण में हैं। दूसरे, जिनकी यह भावना दृढ़ होती जा रही है कि उन्हें चुनावी राजनीति में हिस्सा लेना चाहिए – व्यवस्था में चले जाना चाहिए, भीतर से बातचीत करने के पक्ष में हैं। (कश्मीर में जो विकल्प लोगों के सामने हैं, उनसे मिलते-जुलते नहीं हैं ये?) याद रखने वाली बात यह है कि उनके तरीकों में चाहे अंतर हो, दोनों ही पक्षों का एक विचार समान है (सीधे-सादे शब्दों में कहा जाए तो) – बहुत हो गया। या बास्ता।

इससे ज़्यादा महत्वपूर्ण और कोई बहस इस समय भारत में नहीं हो रही है। इसका नतीजा देश में जीवन की गुणवत्ता को बदल देगा, अच्छे के लिए, या बुरे के लिए। हर एक के लिए। अमीर, गरीब, ग्रामीण, शहरी।

सशस्त्र संघर्ष राज्य को हिंसा में भयंकर रूप से बढ़ावा करने का बहाना दे देता है। हम देख ही चुके हैं कि कश्मीर और उत्तर-पूर्व में यह किस दलदल तक ले गया है।

तब फिर क्या हमें वही करना चाहिए जो प्रधान मंत्री हमसे करने को कहते हैं? असहमति छोड़ दो और चुनावी राजनीति के दंगल में घुस जाओ? तमाशे में शामिल हो जाओ? अर्थहीन तीखे अपमानों के लेन-देन में हिस्सा लो जिनसे हो सिर्फ़ यह कि असल में जो लगभग संपूर्ण सर्व-सहमति है वो छिप जाए। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हर बड़े मुद्दे पर – नाभिकीय बम, विशाल बाँध, बाबरी मस्जिद विवाद, और निजीकरण – कांग्रेस ने बीज बोए और भाजपा ने उसकी जगह हथिया कर वीभत्स फसल काटी।

इसका मतलब यह नहीं है कि संसद किसी काम की नहीं है और चुनावों को नज़रअंदाज़ कर देना चाहिए। यह बिल्कुल सही है कि एक खुले तौर पर फ़ासीवादी झुकाव वाली सांप्रदायिक पार्टी और एक अवसरवादी सांप्रदायिक पार्टी में अंतर है। यह भी सही है कि खुले आम गर्व के साथ घृणा का प्रचार करने वाली राजनीति और चालाकी से लोगों को एक-दूसरे के विरुद्ध भड़काने वाली राजनीति में अंतर है।

और हम यह भी जानते हैं कि एक की विरासत ही हमें दूसरे के वीभत्स वर्तमान तक ले आई है। इन दोनों ने मिलकर संसदीय जनतंत्र में कथित तौर से मिलने वाली चुनने की सारी असल संभावना मिटा डाली है। चुनावों के चारों तरफ बनाया जाने वाला उन्माद और मेला-मैदान जैसा वातावरण मीडिया में केन्द्रीय स्थान ले लेता है क्योंकि हर कोई जानता है कि चाहे कोई भी जीते, यथा-स्थिति तो मूल रूप से वैसी ही रहनी है। (संसद में आवेशपूर्ण भाषणों के बाद भी पोटा को रद्द करना किसी भी दल के चुनावी अभियान में प्राथमिकता के साथ नज़र नहीं आता। उनमें से सब जानते हैं कि उन्हें इसकी ज़रूरत है, किसी न किसी रूप में।) वो चाहे जो कहें, चुनावों के दौरान या विपक्ष में रहते हुए, राज्य या केंद्र की कोई भी सरकार, दक्षिण/वाम/मध्य/बगल की कोई भी राजनीतिक पार्टी नव-उदारवाद की लहर को रोक नहीं पाई है। “भीतर” से कोई बुनियादी बदलाव नहीं होगा।

व्यक्तिगत तौर पर मेरा यह मानना नहीं है कि चुनावी दंगल में शामिल होना वैकल्पिक राजनीति का एक तरीका है। मध्य-वर्ग की उस मानसिकता के कारण नहीं जिसके अनुसार ‘राजनीति गंदा काम है’ या ‘सारे राजनीतिज्ञ भ्रष्ट होते हैं’, बल्कि इसलिए कि मेरे अनुसार रणनीतिक रूप से लड़ाइयाँ उन जगहों से लड़ी जानी चाहिएँ जहाँ हमारी ताकत हो, न कि वहाँ से जहाँ हम कमज़ोर हों।

सांप्रदायिक फ़ासीवाद और नव-उदारवाद के दोहरे आक्रमण का निशाना हैं अल्पसंख्यक संप्रदाय (जो, समय बीतने के साथ धीरे-धीरे निर्धन बनाए जा रहे हैं।) जैसे-जैसे नव-उदारवाद गरीबों और अमीरों के बीच, इंडिया शाइनिंग और इंडिया के बीच दरार पैदा कर रहा है, वैसे-वैसे मुख्यधारा के किसी भी राजनीतिक दल के लिए यह दिखावा करना कि वह अमीरों और गरीबों दोनो के हितों का प्रतिनिधित्व करता है बेतुका बनता जा रहा है, क्योंकि एक के हितों का प्रतिनिधित्व दूसरों की कीमत पर ही हो सकता है। एक संपन्न भारतीय के तौर पर मेरे “हित” (अगर मैं उन्हें बढ़ाना चाहूँ) शायद ही आंध्र प्रदेश के किसी गरीब किसान के हितों से मेल खाएंगे।

वह राजनीतिक पार्टी जो गरीबों का प्रतिनिधित्व करेगी, एक गरीब पार्टी होगी। बहुत सीमित वित्त वाली पार्टी। आज यह संभव नहीं है कि बिना धन के चुनाव लड़ा जाए। दो-चार जाने-माने राजनीतिक कार्यकर्ताओं को संसद में पहुँचा देना रोचक हो सकता है, पर उसका कोई खास राजनैतिक अर्थ नहीं है। ऐसी प्रक्रिया नहीं है जिसमें हम अपनी सारी ऊर्जा लगा सकें। चमत्कारी व्यक्तित्व, व्यक्ति केंद्रित राजनीति बुनियादी बदलाव नहीं ला सकते।

किंतु गरीब होने का मतलब कमज़ोर होना नहीं है। गरीब की ताकत दफ़्तरों की इमारतों और न्यायालयों के भीतर नहीं है। यह तो बाहर है, इस देश के खेतों-मैदानों में, पहाड़ों पर, नदी घाटियों में, शहरों की गलियों में और विश्वविद्यालय परिसरों में। ये जगहें हैं जहाँ वार्ताएँ होनी चाहिएँ। ये जगहें हैं जहाँ लड़ाइयाँ लड़ी जानी चाहिए।

फिलहाल तो हाल यह है कि इन जगहों को हिन्दू दक्षिणपंथ के लिए छोड़ दिया गया है। उनकी राजनीति के बारे में हम जो भी सोचें, इतना तो मानना पड़ेगा कि ये लोग बाहर निकल कर बड़ी मेहनत के साथ काम कर रहे हैं। जैसे-जैसे राज्य स्वास्थ्य, शिक्षा और ज़रूरी जन सुविधाओं के प्रति अपनी ज़िम्मेदारियों से मुक्त होता जा रहा है, संघ परिवार के पैदल सिपाही उसकी जगह लेते जा रहे हैं। घातक प्रचार करने वाली अपनी दसियों हज़ार शाखाओं के अलावा वो विद्यालय, अस्पताल, चिकित्सालय, ऐंब्युलेंस सेवाएँ और विपत्ति प्रबंधन केंद्र भी चलाते हैं। शक्तिहीन होने का मतलब वो समझते हैं। वो ये भी समझते हैं कि लोगों, और खास तौर से शक्तिहीन लोगों, की ज़रूरतें और इच्छाएँ केवल आम दैनिक ज़रूरतें ही नहीं होतीं, बल्कि भावनात्मक, आध्यात्मिक, मनोरंजन की भी होती हैं। उन्होंने एक वीभत्स कुठाली बना ली है जिसमें दैनिक जीवन का गुस्सा, आक्रोश, अपमान, और एक अलग भविष्य के सपने मिला कर, पिघला कर, घातक उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल किया जाता है। इस बीच पारंपरिक, मुख्यधारा का वामपंथ अब भी ‘ताकत हथियाने’ के सपने देख रहा है, लेकिन अजीब बात है कि वो समय की ज़रूरतों का सामना करने के लिए बदलने को तैयार नहीं है। उसने खुद को एक पहुँच से बाहर, बौद्धिक क्षेत्र में घेराबंद कर लिया है, जहाँ प्राचीन तर्कों का पुरातन भाषा में आदान-प्रदान किया जाता है जिन्हें गिनती के लोग ही समझ सकते हैं।

संघ परिवार के धावे को थोड़ी-बहुत चुनौती अगर कोई दे रहा है तो वो हैं देश में चारों तरफ बिखरे हुए ज़मीनी स्तर के प्रतिरोध आंदोलन, जो “विकास” के हमारे वर्तमान मॉडल से उपजी बेदखली और मौलिक अधिकारों के दमन के विरुद्ध लड़ रहे हैं। इनमें से अधिकतर आंदोलन दूसरे आंदोलनों से असंबद्ध हैं और, (लगातार लगने वाले इन आरोपों के बावजूद कि वे “विदेशों के पैसे से पलने वाले विदेशी एजेंट हैं”) वे लगभग बिना धन और बिना साधनों के काम करते हैं। वे शानदार अग्निशामक हैं, उनकी पीठ दीवार की तरफ है। लेकिन उनके कान ज़मीनी आवाज़ सुन रहे हैं। विकट वास्तविकता से उनका परिचय है। अगर वे मिल जाएँ, अगर उन्हें समर्थन और बढ़ावा मिले तो वे एक दमदार ताकत बन सकते हैं। उनकी लड़ाई को, जब भी वो लड़ी जाए, आदर्शवादी होना पड़ेगा – ठोस विचारधारात्मक नहीं।

एक ऐसे समय पर जब अवसरवाद ही सब कुछ है, जब उम्मीद खत्म हो गई लगती है, जब हर चीज़ एक व्यापारिक सौदा बन के रह गई है, हमें स्वप्न देखने का साहस ढूँढना होगा। रोमांस को फिर से पाना होगा। न्याय में, स्वतंत्रता में और गरिमा में विश्वास करने का रोमांस। हर किसी के लिए। हमें अपने उद्देश्य मिलाने पड़ेंगे, और ऐसा करने के लिए हमें समझना पड़ेगा कि यह विशाल पुरानी मशीन किस तरह काम करती है – किसके लिए काम करती है और किसके विरुद्ध काम करती है। कौन कीमत चुकाता है, कौन फ़ायदा उठाता है। देश भर में अलग-थलग, इकहरे मुद्दों पर लड़ने वाले अहिंसात्मक आंदोलनों ने भी समझ लिया है कि उनकी तरह की विशिष्ट हितों की राजनीति, जिसका कोई समय था और जगह थी, अब काफी नहीं है। वे फँसे हुए और अप्रभावी अनुभव कर रहे हैं, पर यह कारण अहिंसात्मक राजनीति को रणनीति के तौर पर छोड़ देने के लिए काफी नहीं है। फिर भी यह कुछ आत्म-निरीक्षण करने के लिए पर्याप्त कारण है। हमें दूरंदेशी की ज़रूरत है। हमें यह निश्चित करना पड़ेगा कि हममें से जो लोग जनतंत्र को फिर से पाना चाहते हैं उन्हें अपने काम करने के तरीके में जनतांत्रिक होना पड़ेगा। अगर हमारे संघर्ष को आदर्शवादी रहना है तो हम उन आंतरिक अन्यायों के लिए छूट नहीं दे सकते जो हम एक-दूसरे पर, औरतों पर, बच्चों पर करते हैं। उदाहरण के लिए, सांप्रदायिकता से लड़ने वाले आर्थिक अन्यायों की तरफ से आँखें नहीं मूँद सकते। जो बड़े बाँधों या विकास योजनाओं के विरुद्ध लड़ रहे हैं वे अपने प्रभाव के क्षेत्रों में सांप्रदायिकता या जाति की राजनीति से बच के नहीं निकल सकते – चाहे उसके लिए उन्हें अपने विशिष्ट अभियानों में कुछ समय के लिए नुकसान ही क्यों न उठाना पड़े। अगर अवसरवाद और सुविधा हमारे विश्वासों की कीमत पर हमें मिलते हैं तो हममें और मुख्यधारा के राजनीतिज्ञों में कोई अंतर नहीं रह जाता। अगर जो हम चाहते हैं वह न्याय है तो उसका मतलब होना चाहिए सबके लिए न्याय और समान अधिकार – केवल विशेष हितों की रक्षा के लिए बने और विशेष पूर्वाग्रहों वाले समूहों के लिए नहीं। इसके बारे में मोल-भाव नहीं हो सकता।

हमने अहिंसात्मक प्रतिरोध को तसल्ली देने वाला राजनीतिक रंगमंच बन जाने दिया है, जो कि अपनी सफलता के चरम पर मीडिया के लिए फ़ोटो खींचने का अवसर भर है, और अपनी सफलता के निम्नतम पर साफ नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है।

हमें फिर से ऊपर देखने और प्रतिरोध की रणनीतियों पर फ़ौरी बातचीत करने की, असली लड़ाइयाँ लड़ने की और असल नुकसान पहुँचाने की ज़रूरत है। हमें याद रखना चाहिए कि डाँडी मार्च सिर्फ़ अच्छा राजनीतिक रंगमंच नहीं था। बल्कि यह ब्रिटिश साम्राज्य के आर्थिक आधारों पर एक प्रहार था।

हमें राजनीति की परिभाषा बदलनी होगी। नागरिक समाज के उपक्रमों का ‘एनजीओ’करण हमें बिल्कुल उल्टी दिशा में ले जा रहा है। यह हमारा ग़ैर-राजनीतिकरण कर रहा है। हमें सहायता और दान पर निर्भर बना रहा है। हमें नागरिक असहयोग की पुनर्कल्पना करनी होगी।

शायद हमें चाहिए लोक सभा से बाहर एक चयनित ‘छाया संसद’ जिसके समर्थन और पुष्टि के बिना संसद आसानी से काम न कर सके। एक छाया संसद जो भूमिगत ताल के साथ चल सके, जो गुप्त जानकारी और सूचना में भागीदारी कर सके (वह सब जो मीडिया की मुख्यधारा में अधिकाधिक अनुपलब्ध होता जा रहा है)। निडर होकर, पर अहिंसात्मक तरीके से, हमें इस मशीन के हिस्सों को बंद करना होगा जो हमें खाए जा रही है।

समय हमारे हाथ से निकलता जा रहा है। यहाँ हमारे बात करते-करते ही हिंसा का घेरा कसता जा रहा है। बदलाव तो दोनो तरह से ही आएगा। खूनी भी हो सकता है, और सुंदर भी हो सकता है। हमारे ऊपर निर्भर है।

अनुवादक: अनिल एकलव्य
अनुवाद तारीख: 13 अक्तूबर, 2006

Original article at ZCommunications

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जनवरी 11, 2009

आधुनिक भारत

(लेख – पी. साईनाथ – 03 अप्रैल, 2006)

किसानों द्वारा आत्महत्याओं की संख्या इस हफ़्ते 400 पार कर गई। सेन्सेक्स शेयर सूचकांक 11,000 पार कर गया। और लैक्मे फ़ैशन सप्ताह (एल. एफ़. डब्ल्यू.) में 500 पत्रकारों को मीडिया पास दिए गए। यह सभी बातें पहली बार हुई हैं। सब कुछ एक ही सप्ताह में हुआ। और इनमें से हर एक चीज़ एक अजीबोगरीब तरीके से दर्शाती है कि भारत का ब्रेव न्यू वर्ल्ड किस तरफ जा रहा है। भारी कटाव का यह एक ज़बरदस्त मापक है। उस खाई का जो एक तरफ तो है पाए हुओं और ज़्यादा पाए हुओं के बीच, और दूसरी तरफ खोए हुओं और हताश लोगों के बीच।

उपरोक्त तीन घटनाओं में से विदर्भ में आत्महत्याओं की संख्याओं का कई अखबारों और टेलीविज़न चैनलों में कोई ज़िक्र नहीं हुआ। इसके बावजूद कि ये पिछले साल के 2 जून से हो रही हैं। इसके बावजूद कि सबसे कम आँकड़े (सकाल अखबार) के अनुसार भी मृतकों की संख्या 372 से ऊपर है। (2000-01 से गिना जाए तब तो संख्या हज़ारों में पहुंच जाएगी।) हाँ, मीडिया में दुर्लभ अपवाद थे। पर वे बिल्कुल वही थे – दुर्लभ। यह बता पाना मुश्किल है कि जो लोग ज़मीनी तौर पर इस असाधारण मानवीय त्रासदी से लड़ रहे हैं, वे कैसा महसूस कर रहे हैं। खास तौर से यह देखते हुए कि वही राष्ट्रीय मीडिया जो अन्य मुद्दों पर प्रवचन करने से नहीं चूकता, इस मुद्दे पर खामोश है।

उन 13 दिनों के दौरान जब आत्महत्या सूचकांक 400 से ऊपर पहुँचा, 40 किसानों ने अपनी जान ली। विदर्भ जन आंदोलन समिति ने ध्यान दिलाया है कि आत्महत्याओं की दर अब प्रतिदिन 3 हो गई है – और बढ़ रही है। ये मौतें किसी प्राकृतिक विपदा का परिणाम नहीं हैं बल्कि हृदयहीन सिनीसिज़्म के साथ थोपी गई नीतियों का परिणाम हैं। इनके मूल में कई कारण हैं जिनमें शामिल हैं ऋण की अनुपलब्धता से जुड़ी कर्ज़ की समस्या, खेती के लिए प्रयुक्त वस्तुओं की बढ़ती कीमतें, कृषि उत्पादों के घटते मूल्य, और उम्मीद का पूरी तरह से अंत। विश्वास का ऐसा अंत तथा मौतों में वृद्धि पिछले अक्तूबर के बाद से सर्वाधिक रही है। यह उस समय है जब एक ऐसी सरकार सत्ता में आई जिसने कपास का मूल्य 2,700 रु. प्रति क्विंटल करने का वादा किया था पर ऐसी परिस्थितियाँ पैदा कर दीं कि मूल्य गिर कर 1,700 रु. हो गया। एक हज़ार रुपये कम।

यह देखते हुए कि 413 आत्महत्याओं में से 322 सिर्फ़ 1 नवंबर से अब तक के दौरान हुई हैं, आप सोचेंगे कि यह खबर बनने लायक बात है। जब प्रतिमाह की सर्वाधिक संख्या 77 अकेले मार्च में हुई हो, तब भी आप यही सोचेंगे। लेकिन आप गलत होंगे। भारतीय ग्रामीण क्षेत्र का ग्रेट डिप्रेशन खबर बनने लायक बात नहीं है।

लेकिन सेन्सेक्स और फ़ैशन वीक खबर बनने लायक हैं। “सेन्सेक्स और फ़ैशन वीक को खबर बनाने में,” एक नाराज़ पाठक ने मुझे लिखा “कुछ भी गलत नहीं है।” बात तो ठीक है। लेकिन ऐसा करते समय हमारे अनुपात बोध में कुछ भयंकर गड़बड़ है। सेन्सेक्स की हर धड़कन और फड़फड़ाहट मुख्य पृष्ठ पर आने लायक समझी जाती है। चाहे केवल दो प्रतिशत से भी कम भारतीय गृहस्थियों का स्टॉक ऐक्सचेंज में किसी भी तरह का कोई निवेश है। इस सप्ताह का चढ़ाव आज तक का सर्वाधिक ही नहीं है। यह मुख्य पृष्ठ की प्रमुख रिपोर्ट भी है। ऐसा इसलिए कि “सेन्सेक्स ने डाव को संख्याओं के खेल में हरा दिया है।” एक बड़े दैनिक में शीर्षक के नीचे लिखा था: “दलाल स्ट्रीट के 11,183 ने वॉल स्ट्रीट को ढक लिया।” तब से यह अंक बढ़ कर 11,300 पर पहुँच गया है।

टेलीविज़न पर अव्यापारिक चैनलों के भी दाएँ कोने पर एक सूचक लगा रहता है। दर्शकों को तब भी बड़े अवसरों के बारे में सावधान करता हुआ जब वे ताज़ातरीन बम विस्फोट में हुई मौतों की संख्या देख रहे होते हैं। एक बार तो राष्ट्रपति के. आर. नारायण के लिए शोक मनाना और निफ़्टी तथा सेन्सेक्स की खुशियाँ अगल-बगल चल रहे थे। ऐसी विडंबना पर ध्यान तो जाता है पर यह बनी फिर भी रहती है।

फ़ैशन वीक के प्रेमियों के लिए एक बड़ी खबर यह है कि इस वर्ष ऐसे दो वीक मनाए जाएंगे। सुंदर लोगों के दल में एक दरार पड़ गई है। जिसका मतलब है कि हमारे लिए अब 500 या उससे भी ज़्यादा पत्रकार इन दो आयोजनों का अलग-अलग ब्यौरा लेने जाएंगे। ऐसा उसी देश में हो रहा है जहाँ फ़ैशन उद्योग के अपने ही एक अध्ययन के अनुसार भारतीय डिज़ाइनर बाज़ार कुल कपड़ा बाज़ार का केवल 0.2 प्रतिशत है। जहाँ ऐसे आयोजनों में हर साल पत्रकारों की संख्या खरीदारों से अधिक होती है – अक्सर तीन गुना।

इस की तुलना करें पत्रकारों की उस नगण्य संख्या से जिसको विदर्भ की भयंकर विपत्ति के दौरान वहाँ का ब्यौरा लेने के लिए भेजा गया। एल. एफ़. डब्ल्यू. में एक तरफ पत्रकार ‘ऐक्सक्लूसिव’ पाने के लिए धक्का-मुक्की करते हैं और दूसरी तरफ टी. वी. वालों में कैमरे के लिए सबसे बढ़िया जगह बनाने के लिए होड़ लगी रहती है। उधर विदर्भ में मौजूद सर्वश्रेष्ठ रिपोर्टर अपना मानसिक संतुलन बनाए रखने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। यह जानते हुए भी कि उनका सामना ऐसे दैनिकों से है जो उनकी अधिकांश रिपोर्टों को दबा देते हैं, या उन चैनलों से जो ऐसी रिपोर्टों को देख कर नाक-भौं सिकोड़ते हैं, वे अपने काम में लगे हुए हैं। अपनी पूरी जान लगा कर देश का ध्यान जो कुछ हो रहा है उसकी तरफ खींचने के लिए। देश की सामूहिक अंतरात्मा को छू पाने के लिए। दरिद्रता से उनका इतना तीखा सामना हुआ है कि वे अगली गृहस्थी का ब्यौरा लेने के लिए खुद को घसीट कर ले जाते हैं जबकि उनका मन कहता है कि सब छोड़ दिया जाए। उनमें से हर एक जानता है कि किसानों की आत्महत्याएँ तो केवल झलक भर हैं। एक बहुत बड़ी विपत्ति का लक्षण।

वैसे जो अखबार उनकी रिपोर्टों को नापसंद करते हैं वे गरीबों के लिए जगह ढूंढ लेते हैं। जैसे कि इस विज्ञापन में, जो उनके लिए वितृष्णा की नई हदों को छूता है। दो गरीब औरतें, शायद भूमिहीन मज़दूर, गपशप कर रही हैं: “तुम्हारी त्वचा का रंग तो बड़ा ही डिज़ाइनर टैन है।” “हाँ,” दूसरी जवाब देती है। “मेरी त्वचा को मौंटे कार्लो की धूप बहुत सूट करती है।” आगे का विज्ञापन उन पर कटाक्ष करता है। “आप मानेंगे,” उसमें लिखा है, “कि इस बात की संभावना कि ऊपर दिखाई गई महिलाएँ फ़्रेंच रिवियरा के सितारों से कंधा मिला पाएंगी, कहना चाहिए, बहुत अधिक नहीं है।” एक टिप्पणी तो खैर उसमें जुड़ी है। कि “हम किसी का अपमान नहीं करना चाहते …” लेकिन “यह बेचने वालों को सिर्फ़ याद दिलाने के लिए है कि अधिक संभावना वाले ग्राहकों पर ध्यान केंद्रित करने का फ़ायदा तो होता है।” यह विज्ञापन है एक बड़े समाचार पत्र समूह के “ब्रांड ईक्विटी” सप्लीमेंट का।

इसी घटनापूर्ण हफ़्ते में मुम्बई में करीब 5,000 झुग्गियाँ तोड़ डाली गईं। लेकिन इस तरफ कम ही लोगों का ध्यान गया। इनके निवासी भी फ़्रेंच रिवियरा तक नहीं पहुँच पाएंगे। जो मीडिया के केंद्र में हैं वे शायद पहुँच भी जाएँ। मुम्बई में पेडर रोड पर जो पुल बनने वाला है, जिसे उस महानगर के कुछ अतिसंपन्न अपने हितों के विरुद्ध मान रहे हैं, को ढेर सारा अखबारी कागज़ और प्रसारण समय दिया गया है। जिनके घर ढहा दिए गए उनका एक भी शब्द सुनाई या दिखाई नहीं पड़ा। इसी दौरान अधिकाधिक लोग गाँवों से भाग कर शहरी भारत की तरफ आ रहे हैं। यानी भविष्य में घर ढहाए जाने के नए उम्मीदवार। गाँवों में हम जिनके जीवन को ढहाते हैं, शहरों में उनके घरों को।

अभिजात वर्ग की आत्मतुष्टि उस सरकार में भी दिखती है जिसे यह वर्ग चुनता नहीं है पर नियंत्रित करता है। जब राष्ट्रीय कृषक आयोग पिछले अक्तूबर में विदर्भ गया तो उसने एक गंभीर रिपोर्ट और बहुत महत्वपूर्ण सुझाव पेश किए। इनमें से कई सुझाव किसानों और उनके संगठनों की मांगों का आधार बन गए हैं। जनवरी में नाशिक में अपने सम्मेलन में अखिल भारतीय किसान सभा (2 करोड़ सदस्यों वाली एक संस्था) ने राष्ट्रीय कृषक आयोग की रिपोर्ट को तुरंत लागू करने की माँग की।

ऐसा करने के बजाय केंद्र व राज्य दोनों की सरकारें एक के बाद एक ‘आयोग’ भेज रही हैं। उस चीज़ का अध्ययन करने के लिए जो कि पहले ही सर्वज्ञात है और जिसके बारे में पर्याप्त दस्तावेज़ भी उपलब्ध हैं। एक तरह का विपत्ति पर्यटन बन गया है। इससे सिर्फ़ यह होता है कि जो करना चाहिए उसे न करने की गलतियों में जो नहीं करना चाहिए उसकी भी गलतियाँ जुड़ जाती हैं।

निगमों की तरफ पक्षपात

क्षति केवल विदर्भ में ही नहीं हो रही है बल्कि पूरे देश में हो रही है। भारतीय राज्य अपने किसानों के साथ ऐसा क्यों कर रहा है? देखा जाए तो कृषि क्या भारत का सबसे बड़ा निजी उद्योग नहीं है? क्योंकि केवल निजी होना ही काफ़ी नहीं है। निर्दयता के साथ, हर नीति, हर बजट हमें कृषि के और अधिक निगमीकरण की तरफ ले जा रहा है। विदर्भ में मज़बूरी में की गई कपास की बिक्री का सबसे अधिक फ़ायदा बड़ी कंपनियों को हुआ है। छोटे निजी मालिक जिन्हें किसान कहा जाता है, की बड़े निगमी फ़ायदे के लिए बलि दी जा सकती है। इसका सबसे बड़ा स्वीकार आंध्र प्रदेश में मैकिन्सी द्वारा लिखे गए चंद्रबाबू नायडू के विज़न 2020 में मिला। इसमें भूमि से लाखों लोगों को बाहर निकाले जाने को एक लक्ष्य के रूप में रखा गया है। केंद्र व कई राज्यों में एक के बाद एक सरकारों ने इस विज़न को बहुत ज़ोर-शोर से अपनाया है। कुछ मामलों में वर्तमान संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूनाइटेड प्रोग्रेसिव अलायंस) ने वहीं से काम चालू रखा है जहाँ श्री नायडू ने छोड़ा था।

जिनको अपनी भूमि से बाहर फेंका जा रहा है वे कहाँ जा रहे हैं? शहरों में जहाँ मिलें बंद हो चुकी हैं। जहाँ फैक्टरियाँ बंद हो चुकी हैं और बहुत ही कम रोजगार उपलब्ध है। यह महान भारतीय चमत्कार रोजगार बढ़ाए बिना वृद्धि करने पर आधारित है। हम अपने इतिहास का सबसे बड़ा मानवीय विस्थापन देख रहे हैं और उसे स्वीकार भी नहीं कर रहे हैं। कोई भी काम पाने की हताशा राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कार्यक्रम के एकदम शुरू में ही साफ़ दिख रही है। इस कार्यक्रम के चालू होते ही आंध्र प्रदेश में 27 लाख उम्मीदवार सामने आ गए। और महाराष्ट्र के 12 ज़िलों में लगभग 10 लाख। ध्यान रखें कि इसके अंतर्गत दी जाने वाली 60 रु. की मज़दूरी कई राज्यों के न्यूनतम से भी कम है। यह भी जान लें कि उम्मीदवारों की लाइन में लगने वालों में से कई किसान ऐसे हैं जिनके पास ज़मीन है। कुछ के पास तो छः एकड़ या उससे भी अधिक भूमि है। आंध्र प्रदेश के वारंगल ज़िले में 10 वर्ष पूर्व एक ऐसा किसान जिसके पास आठ एकड़ धान की खेती लायक ज़मीन हो, कुछ हैसियत वाला व्यक्ति माना जाता था। आज वही, अपने पाँच व्यक्तियों के परिवार के साथ, गरीबी रेखा के नीचे होगा। (अगर भूमिपतियों का ऐसा हाल है तो कल्पना कीजिए कि भूमिहीन मज़दूरों का क्या हाल होगा।)

अगर विदर्भ में राज्य सरकार की भूमिका वितृष्णा पैदा करने वाली है तो केंद्र की डरावनी है। वो केवल दुख ज़ाहिर करने के लिए तैयार है। जैसा कि अखिल भारतीय किसान सभा की रिपोर्ट से ज़ाहिर है, सैकड़ों ऐसी ज़िंदगियाँ बचाने के लिए के बहुत कुछ किया जा सकता है जिन्हें अन्यथा बचाया नहीं जा सकेगा। लेकिन सरकार इस रास्ते से बच रही है।

कृषि का उसका सपना निगमों के लिए है, समुदायों के लिए नहीं। और अभिजात मीडिया? एक विदर्भ सप्ताह क्यों नहीं? उन लोगों की ज़िंदगी और मौत के बारे में ब्यौरा देने के लिए जिनके द्वारा पैदा की गई कपास से वे टैक्सटाइल और फ़ैब्रीक बनते हैं जिनका ब्यौरा छापा जाता है। अगर फ़ैशन वीक में भेजे जाने वाले पत्रकारों में से एक चौथाई भी विदर्भ का ब्यौरा लेने के लिए आवंटित किए जाएँ तो उनके पास कहीं ज़्यादा कहानियाँ होंगी बताने के लिए।

अनुवादक: अनिल एकलव्य

Original Article at ZCommunications

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