अनुवाद

जनवरी 30, 2009

मौत

(कविता – हैरॉल्ड पिंटर)

लाश कहाँ मिली थी?
लाश किसको मिली थी?
लाश जब मिली तब क्या वह मृत थी?
लाश मिली कैसे थी?

लाश थी किसकी?

पिता या भाई कौन था या बेटी कौन थी
या चाचा या मामा या बेटा कौन था या माँ या बहन कौन थी
उस मृत और लावारिस शरीर के?

लावारिस होने से पहले क्या शरीर मृत था?
क्या लाश लावारिस ही थी?
किसने उसे वहाँ छोड़ा था?

क्या मृत शरीर नंगा था या उस पर यात्रा की तैयारी में पहने गए कपड़े थे?

आपने किस आधार पर निर्णय किया कि शरीर मर चुका था?
क्या आपने निर्णय किया था कि शरीर मर चुका है?
आप लाश को कितना क़रीब से जानते थे?
आपको कैसे पता चला कि शरीर मर चुका है?

क्या आपने लाश को धोया था
क्या आपने उसकी आँखें बंद की थीं
क्या आपने उसे दफ़नाया था
क्या आपने उसे वहाँ छोड़ा था
क्या आपने लाश को चूमा था

अनुवादक: अनिल एकलव्य
अनुवाद तारीख: 11 अप्रैल, 2007

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जनवरी 26, 2009

मौत की उम्र तो हो चली है

(कविता – हैरॉल्ड पिंटर)

मौत की उम्र तो हो चली है
पर उसके पंजे में अब भी दम है

पर मौत आपको निहत्था कर देती है
अपने पारदर्शी प्रकाश से

और वो इतनी चतुर है
कि आपको पता भी न चले

वो कहाँ आपके इंतज़ार में है
आपकी इच्छाशक्ति को मोह लेने को
और आपको निर्वस्त्र कर देने को
जब आप सज रहे हों क़त्ल करने को

पर मौत आपको मौका देती है
अपनी घड़ियाँ जमा लेने का

जब वो चूस रही हो रस
आपके सुंदर फूलों का

अनुवादक : अनिल एकलव्य

जनवरी 21, 2009

बम, पलटाव और भविष्य

(लेख – तारिक़ अली)

पिछले तीन सप्ताह से पाकिस्तान के सैनिक शासक तालिबान को इस बात के लिए मनाने की कोशिश कर रहे हैं कि वह ओसामा बिन लादेन को पकड़वा दे और उस बरबादी से बच जाए जिस की तैयारी चल रही है। वो नाकामयाब रहे। क्योंकि ओसामा मुल्ला उमर का दामाद है, यह कोई खास आश्चर्य की बात भी नहीं है। अधिक रोचक सवाल यह है कि पाकिस्तान, अपने सैनिकों, अधिकारियों तथा पाइलटों को अफ़ग़ानिस्तान से वापस बुलाने के बाद, तालिबान में फूट डालने में और अपने पर पूरी तरह निर्भर हिस्सों को लौटाने में सफल रहा है या नहीं। सैनिक प्रशासन के लिए काबुल की भावी गठबंधन सरकार में अपना प्रभाव बनाए रखने के लिए यह एक मुख्य उद्देश्य रहा होगा। पाकिस्तान और तालिबान में संबंध इस साल तनावपूर्ण रहे हैं। दोस्ती बढ़ाने की कोशिश के तहत पाकिस्तान ने छः महीने पहले एक फ़ुटबॉल टीम भेजी थी अफ़ग़ानिस्तान के साथ एक दोस्ताना मैच खेलने के लिए। जब दोनों टीमें काबुल के एक स्टेडियम में एक-दूसरे के आमने-सामने थीं, तब सुरक्षा बलों ने उन्हें घेर लिया और घोषणा की कि पाकिस्तानी खिलाड़ी अशोभनीय कपड़े पहने थे। उन्होंने फ़ुटबॉल शॉर्ट्स जबकि अफ़ग़ान टीम ने घुटनों तक लंबे शॉर्ट्स पहन रखे थे। शायद उनका विचार था कि उठती-गिरती पाकिस्तानी जाँघें दर्शकों, जिनमें केवल पुरुष थे, में उथल-पुथल पैदा कर देंगीं। कौन जाने? पाकिस्तानी टीम को गिरफ्तार कर लिया गया, उनका मुंडन कर दिया गया और सार्वजनिक रूप से उन्हें कोड़े लगाए गए जबकि स्टेडियम के दर्शकों से क़ुरान की आयतों का जाप करवाया गया। यह पाकिस्तानी सेना के धनुष के पार वार करने का मुल्ला उमर का तरीका था।

जहाँ तक लाशों का सवाल है, संयुक्त राज्य अमरीका और उसके वफ़ादार साथी ब्रिटेन द्वारा काबुल और कंधहर पर बमवर्षा से तालिबान-घटा-पाकिस्तानी-गुट-जमा-बिन-लादेन के विशेष दस्ते, जिसमें सिर्फ़ ‘अंतर्राष्ट्रीय जिहाद’ वाले अरबवासी हैं, की ताकत पर कोई असर नहीं पड़ा होगा। यह संयुक्त सेना अब 20-25,000 पक्के दिग्गजों से बनी हुई बताई जाती है। फिर भी तालिबान घेर लिए गए हैं और अकेले पड़ गए हैं। उनकी हार निश्चित है। दो महत्वपूर्ण सीमाओं पर पाकिस्तान और ईरान उनके विरुद्ध डटे हुए हैं। उनका कुछ हफ़्तों से ज़्यादा चल पाना मुश्किल होगा। यह भी निश्चित है कि उनकी सेना का कुछ भाग पहाड़ों में चला जाएगा और पश्चिम के लौटने तक इंतज़ार करेगा, और उसके बाद काबुल में स्थापित की जानी वाली नई राजा ज़ाहिर शाह की सरकार पर हमला करेंगे (जिनको अपने आरामदायक रोमन विला से काबुल के मलबे में कम सेहतमंद माहौल में आना होगा, जहाँ होटल इंटरकॉन्टिनेंटल एकमात्र साबुत बची इमारत है)।

जिस उत्तरी गठबंधन की पश्चिम मदद कर रहा है, वो तालिबान से ज़रा सा कम धार्मिक है पर बाकी सब चीज़ों में उसका रिकॉर्ड भी उतना ही गिरा हुआ है। पिछले साल के दौरान उन्होंने हेरोइन के विपणन का काम बड़े स्तर पर हाथ में लिया है, ब्लेयर के इस दावे का मज़ाक बनाते हुए कि यह युद्ध नशे के विरुद्ध भी युद्ध है। ऐसा मानना कि ये लोग तालिबान से बेहतर होंगे हँसी की बात है। उनका पहला स्वाभाविक काम होगा अपने विरोधियों से बदला लेना। वैसे हाल के दिनों में गुलबुदीन हिक़मतयार, जो कभी पश्चिम का प्यारा “स्वाधीनता सेनानी” था जिसका व्हाइट हाउस तथा डाउनिंग स्ट्रीट में रीगन व थैचर के द्वारा स्वागत होता था, के साथ छोड़ने के कारण गठबंधन कुछ कमज़ोर पड़ा है। इस आदमी ने अब काफ़िरों के विरुद्ध तालिबान का समर्थन करने का फ़ैसला किया है। स्थानीय और धार्मिक दुश्मनियों को देखते हुए अफ़ग़ानिस्तान में किसी कठपुतली सरकार को बनाए रख पाना आसान काम नहीं होगा।

एक बड़ी चिंता यह है कि तालिबान, अपने ही देश में किनारे कर दिए जाने और हार चुकने के बाद, पाकिस्तान पर जुट पड़ेंगे और उसके शहरों तथा सामाजिक ढांचे को तबाह कर देंगे। पेशावर, क़्वेटा और करांची शहरों को सबसे ज़्यादा खतरा है। तब तक पश्चिम, हमेशा की तरह, अपनी “जीत” हासिल करके इस तरफ से मुँह मोड़ चुका होगा। जहाँ तक इस ऑपरेशन के घोषित उद्देश्य का सवाल है – ओसामा बिन लादेन को पकड़ना – यह काम इतना आसान नहीं होगा जितना लगता है। वह पामीर के सुदूर पहाड़ों में अच्छी तरह सुरक्षित है और क्योंकि उसके पास अपना रास्ता चुनने के लिए तीन सप्ताह थे, काफी संभावना है कि वह गायब हो जाएगा। फिर भी जीत की घोषणा कर दी जाएगी। पश्चिम अपने नागरिकों की सीमित स्मृति का सहारा लेगा। लेकिन मान लीजिए कि बिन लादेन को पकड़ लिया जाता है और मार दिया जाता है। इससे “आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध” को किस तरह मदद मिलेगी? अन्य व्यक्ति 11 सितंबर की घटनाओं को अलग-अलग तरीके से दोहराने की कोशिश करेंगे। अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि दुनिया का ध्यान मध्य-पूर्व की तरफ मुड़ जाएगा।

सऊदी अरब में राजपरिवार में सत्ता के लिए ज़बरदस्त संघर्ष चल रहा है। मृत्यु शैया पर पड़े राजा फ़हद ने अपने अमले के साथ तीन बड़े विमानों में देश छोड़ कर स्विट्ज़रलैंड की शरण ली, शायद महल में सत्ता-पलट से बचने के लिए। इसके परिणामस्वरूप राजकुमार अब्दुल्ला के हाथ में कमान आ गई और उनके मुख्य विरोधी सुल्तान की ताकत कम हो गई। सऊदी मामलों के विशेषज्ञ ज़ोर देकर यह कह रहे हैं कि राजकुमार वहाबी धर्माधिकारियों के करीब हैं। अगर ऐसा है तब भी उनको भीड़ के गुस्से का सामना करना पड़ेगा। कुछ ऐसी ही हालत होस्नी मुबारक की मिस्र में है। वो भी चिंतित हैं और नाटो-संगठन से अपनी दूरी बना कर रखे हुए हैं, यह ज़ोर देते हुए कि उनकी सेनाओं का उपयोग नहीं किया जाएगा। काहिरा की गलियाँ बहुत गुस्से में हैं। अगर इन दो देशों में कुछ उपद्रव होता है तो वॉशिंगटन के पास एक स्वतंत्र फ़िलीस्तीनी राज्य बनवाने के सिवा कोई चारा नहीं रह जाएगा। फिर भी 11 सितंबर के परिणामों का ब्यौरा दे पाने का समय अभी नहीं आया है।

अनुवादक: अनिल एकलव्य
अनुवाद तारीख: 22 अक्तूबर, 2006

यही अनुवाद ज़ेडनेट पर
Original Article at ZCommunications

जनवरी 11, 2009

आधुनिक भारत

(लेख – पी. साईनाथ – 03 अप्रैल, 2006)

किसानों द्वारा आत्महत्याओं की संख्या इस हफ़्ते 400 पार कर गई। सेन्सेक्स शेयर सूचकांक 11,000 पार कर गया। और लैक्मे फ़ैशन सप्ताह (एल. एफ़. डब्ल्यू.) में 500 पत्रकारों को मीडिया पास दिए गए। यह सभी बातें पहली बार हुई हैं। सब कुछ एक ही सप्ताह में हुआ। और इनमें से हर एक चीज़ एक अजीबोगरीब तरीके से दर्शाती है कि भारत का ब्रेव न्यू वर्ल्ड किस तरफ जा रहा है। भारी कटाव का यह एक ज़बरदस्त मापक है। उस खाई का जो एक तरफ तो है पाए हुओं और ज़्यादा पाए हुओं के बीच, और दूसरी तरफ खोए हुओं और हताश लोगों के बीच।

उपरोक्त तीन घटनाओं में से विदर्भ में आत्महत्याओं की संख्याओं का कई अखबारों और टेलीविज़न चैनलों में कोई ज़िक्र नहीं हुआ। इसके बावजूद कि ये पिछले साल के 2 जून से हो रही हैं। इसके बावजूद कि सबसे कम आँकड़े (सकाल अखबार) के अनुसार भी मृतकों की संख्या 372 से ऊपर है। (2000-01 से गिना जाए तब तो संख्या हज़ारों में पहुंच जाएगी।) हाँ, मीडिया में दुर्लभ अपवाद थे। पर वे बिल्कुल वही थे – दुर्लभ। यह बता पाना मुश्किल है कि जो लोग ज़मीनी तौर पर इस असाधारण मानवीय त्रासदी से लड़ रहे हैं, वे कैसा महसूस कर रहे हैं। खास तौर से यह देखते हुए कि वही राष्ट्रीय मीडिया जो अन्य मुद्दों पर प्रवचन करने से नहीं चूकता, इस मुद्दे पर खामोश है।

उन 13 दिनों के दौरान जब आत्महत्या सूचकांक 400 से ऊपर पहुँचा, 40 किसानों ने अपनी जान ली। विदर्भ जन आंदोलन समिति ने ध्यान दिलाया है कि आत्महत्याओं की दर अब प्रतिदिन 3 हो गई है – और बढ़ रही है। ये मौतें किसी प्राकृतिक विपदा का परिणाम नहीं हैं बल्कि हृदयहीन सिनीसिज़्म के साथ थोपी गई नीतियों का परिणाम हैं। इनके मूल में कई कारण हैं जिनमें शामिल हैं ऋण की अनुपलब्धता से जुड़ी कर्ज़ की समस्या, खेती के लिए प्रयुक्त वस्तुओं की बढ़ती कीमतें, कृषि उत्पादों के घटते मूल्य, और उम्मीद का पूरी तरह से अंत। विश्वास का ऐसा अंत तथा मौतों में वृद्धि पिछले अक्तूबर के बाद से सर्वाधिक रही है। यह उस समय है जब एक ऐसी सरकार सत्ता में आई जिसने कपास का मूल्य 2,700 रु. प्रति क्विंटल करने का वादा किया था पर ऐसी परिस्थितियाँ पैदा कर दीं कि मूल्य गिर कर 1,700 रु. हो गया। एक हज़ार रुपये कम।

यह देखते हुए कि 413 आत्महत्याओं में से 322 सिर्फ़ 1 नवंबर से अब तक के दौरान हुई हैं, आप सोचेंगे कि यह खबर बनने लायक बात है। जब प्रतिमाह की सर्वाधिक संख्या 77 अकेले मार्च में हुई हो, तब भी आप यही सोचेंगे। लेकिन आप गलत होंगे। भारतीय ग्रामीण क्षेत्र का ग्रेट डिप्रेशन खबर बनने लायक बात नहीं है।

लेकिन सेन्सेक्स और फ़ैशन वीक खबर बनने लायक हैं। “सेन्सेक्स और फ़ैशन वीक को खबर बनाने में,” एक नाराज़ पाठक ने मुझे लिखा “कुछ भी गलत नहीं है।” बात तो ठीक है। लेकिन ऐसा करते समय हमारे अनुपात बोध में कुछ भयंकर गड़बड़ है। सेन्सेक्स की हर धड़कन और फड़फड़ाहट मुख्य पृष्ठ पर आने लायक समझी जाती है। चाहे केवल दो प्रतिशत से भी कम भारतीय गृहस्थियों का स्टॉक ऐक्सचेंज में किसी भी तरह का कोई निवेश है। इस सप्ताह का चढ़ाव आज तक का सर्वाधिक ही नहीं है। यह मुख्य पृष्ठ की प्रमुख रिपोर्ट भी है। ऐसा इसलिए कि “सेन्सेक्स ने डाव को संख्याओं के खेल में हरा दिया है।” एक बड़े दैनिक में शीर्षक के नीचे लिखा था: “दलाल स्ट्रीट के 11,183 ने वॉल स्ट्रीट को ढक लिया।” तब से यह अंक बढ़ कर 11,300 पर पहुँच गया है।

टेलीविज़न पर अव्यापारिक चैनलों के भी दाएँ कोने पर एक सूचक लगा रहता है। दर्शकों को तब भी बड़े अवसरों के बारे में सावधान करता हुआ जब वे ताज़ातरीन बम विस्फोट में हुई मौतों की संख्या देख रहे होते हैं। एक बार तो राष्ट्रपति के. आर. नारायण के लिए शोक मनाना और निफ़्टी तथा सेन्सेक्स की खुशियाँ अगल-बगल चल रहे थे। ऐसी विडंबना पर ध्यान तो जाता है पर यह बनी फिर भी रहती है।

फ़ैशन वीक के प्रेमियों के लिए एक बड़ी खबर यह है कि इस वर्ष ऐसे दो वीक मनाए जाएंगे। सुंदर लोगों के दल में एक दरार पड़ गई है। जिसका मतलब है कि हमारे लिए अब 500 या उससे भी ज़्यादा पत्रकार इन दो आयोजनों का अलग-अलग ब्यौरा लेने जाएंगे। ऐसा उसी देश में हो रहा है जहाँ फ़ैशन उद्योग के अपने ही एक अध्ययन के अनुसार भारतीय डिज़ाइनर बाज़ार कुल कपड़ा बाज़ार का केवल 0.2 प्रतिशत है। जहाँ ऐसे आयोजनों में हर साल पत्रकारों की संख्या खरीदारों से अधिक होती है – अक्सर तीन गुना।

इस की तुलना करें पत्रकारों की उस नगण्य संख्या से जिसको विदर्भ की भयंकर विपत्ति के दौरान वहाँ का ब्यौरा लेने के लिए भेजा गया। एल. एफ़. डब्ल्यू. में एक तरफ पत्रकार ‘ऐक्सक्लूसिव’ पाने के लिए धक्का-मुक्की करते हैं और दूसरी तरफ टी. वी. वालों में कैमरे के लिए सबसे बढ़िया जगह बनाने के लिए होड़ लगी रहती है। उधर विदर्भ में मौजूद सर्वश्रेष्ठ रिपोर्टर अपना मानसिक संतुलन बनाए रखने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। यह जानते हुए भी कि उनका सामना ऐसे दैनिकों से है जो उनकी अधिकांश रिपोर्टों को दबा देते हैं, या उन चैनलों से जो ऐसी रिपोर्टों को देख कर नाक-भौं सिकोड़ते हैं, वे अपने काम में लगे हुए हैं। अपनी पूरी जान लगा कर देश का ध्यान जो कुछ हो रहा है उसकी तरफ खींचने के लिए। देश की सामूहिक अंतरात्मा को छू पाने के लिए। दरिद्रता से उनका इतना तीखा सामना हुआ है कि वे अगली गृहस्थी का ब्यौरा लेने के लिए खुद को घसीट कर ले जाते हैं जबकि उनका मन कहता है कि सब छोड़ दिया जाए। उनमें से हर एक जानता है कि किसानों की आत्महत्याएँ तो केवल झलक भर हैं। एक बहुत बड़ी विपत्ति का लक्षण।

वैसे जो अखबार उनकी रिपोर्टों को नापसंद करते हैं वे गरीबों के लिए जगह ढूंढ लेते हैं। जैसे कि इस विज्ञापन में, जो उनके लिए वितृष्णा की नई हदों को छूता है। दो गरीब औरतें, शायद भूमिहीन मज़दूर, गपशप कर रही हैं: “तुम्हारी त्वचा का रंग तो बड़ा ही डिज़ाइनर टैन है।” “हाँ,” दूसरी जवाब देती है। “मेरी त्वचा को मौंटे कार्लो की धूप बहुत सूट करती है।” आगे का विज्ञापन उन पर कटाक्ष करता है। “आप मानेंगे,” उसमें लिखा है, “कि इस बात की संभावना कि ऊपर दिखाई गई महिलाएँ फ़्रेंच रिवियरा के सितारों से कंधा मिला पाएंगी, कहना चाहिए, बहुत अधिक नहीं है।” एक टिप्पणी तो खैर उसमें जुड़ी है। कि “हम किसी का अपमान नहीं करना चाहते …” लेकिन “यह बेचने वालों को सिर्फ़ याद दिलाने के लिए है कि अधिक संभावना वाले ग्राहकों पर ध्यान केंद्रित करने का फ़ायदा तो होता है।” यह विज्ञापन है एक बड़े समाचार पत्र समूह के “ब्रांड ईक्विटी” सप्लीमेंट का।

इसी घटनापूर्ण हफ़्ते में मुम्बई में करीब 5,000 झुग्गियाँ तोड़ डाली गईं। लेकिन इस तरफ कम ही लोगों का ध्यान गया। इनके निवासी भी फ़्रेंच रिवियरा तक नहीं पहुँच पाएंगे। जो मीडिया के केंद्र में हैं वे शायद पहुँच भी जाएँ। मुम्बई में पेडर रोड पर जो पुल बनने वाला है, जिसे उस महानगर के कुछ अतिसंपन्न अपने हितों के विरुद्ध मान रहे हैं, को ढेर सारा अखबारी कागज़ और प्रसारण समय दिया गया है। जिनके घर ढहा दिए गए उनका एक भी शब्द सुनाई या दिखाई नहीं पड़ा। इसी दौरान अधिकाधिक लोग गाँवों से भाग कर शहरी भारत की तरफ आ रहे हैं। यानी भविष्य में घर ढहाए जाने के नए उम्मीदवार। गाँवों में हम जिनके जीवन को ढहाते हैं, शहरों में उनके घरों को।

अभिजात वर्ग की आत्मतुष्टि उस सरकार में भी दिखती है जिसे यह वर्ग चुनता नहीं है पर नियंत्रित करता है। जब राष्ट्रीय कृषक आयोग पिछले अक्तूबर में विदर्भ गया तो उसने एक गंभीर रिपोर्ट और बहुत महत्वपूर्ण सुझाव पेश किए। इनमें से कई सुझाव किसानों और उनके संगठनों की मांगों का आधार बन गए हैं। जनवरी में नाशिक में अपने सम्मेलन में अखिल भारतीय किसान सभा (2 करोड़ सदस्यों वाली एक संस्था) ने राष्ट्रीय कृषक आयोग की रिपोर्ट को तुरंत लागू करने की माँग की।

ऐसा करने के बजाय केंद्र व राज्य दोनों की सरकारें एक के बाद एक ‘आयोग’ भेज रही हैं। उस चीज़ का अध्ययन करने के लिए जो कि पहले ही सर्वज्ञात है और जिसके बारे में पर्याप्त दस्तावेज़ भी उपलब्ध हैं। एक तरह का विपत्ति पर्यटन बन गया है। इससे सिर्फ़ यह होता है कि जो करना चाहिए उसे न करने की गलतियों में जो नहीं करना चाहिए उसकी भी गलतियाँ जुड़ जाती हैं।

निगमों की तरफ पक्षपात

क्षति केवल विदर्भ में ही नहीं हो रही है बल्कि पूरे देश में हो रही है। भारतीय राज्य अपने किसानों के साथ ऐसा क्यों कर रहा है? देखा जाए तो कृषि क्या भारत का सबसे बड़ा निजी उद्योग नहीं है? क्योंकि केवल निजी होना ही काफ़ी नहीं है। निर्दयता के साथ, हर नीति, हर बजट हमें कृषि के और अधिक निगमीकरण की तरफ ले जा रहा है। विदर्भ में मज़बूरी में की गई कपास की बिक्री का सबसे अधिक फ़ायदा बड़ी कंपनियों को हुआ है। छोटे निजी मालिक जिन्हें किसान कहा जाता है, की बड़े निगमी फ़ायदे के लिए बलि दी जा सकती है। इसका सबसे बड़ा स्वीकार आंध्र प्रदेश में मैकिन्सी द्वारा लिखे गए चंद्रबाबू नायडू के विज़न 2020 में मिला। इसमें भूमि से लाखों लोगों को बाहर निकाले जाने को एक लक्ष्य के रूप में रखा गया है। केंद्र व कई राज्यों में एक के बाद एक सरकारों ने इस विज़न को बहुत ज़ोर-शोर से अपनाया है। कुछ मामलों में वर्तमान संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूनाइटेड प्रोग्रेसिव अलायंस) ने वहीं से काम चालू रखा है जहाँ श्री नायडू ने छोड़ा था।

जिनको अपनी भूमि से बाहर फेंका जा रहा है वे कहाँ जा रहे हैं? शहरों में जहाँ मिलें बंद हो चुकी हैं। जहाँ फैक्टरियाँ बंद हो चुकी हैं और बहुत ही कम रोजगार उपलब्ध है। यह महान भारतीय चमत्कार रोजगार बढ़ाए बिना वृद्धि करने पर आधारित है। हम अपने इतिहास का सबसे बड़ा मानवीय विस्थापन देख रहे हैं और उसे स्वीकार भी नहीं कर रहे हैं। कोई भी काम पाने की हताशा राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कार्यक्रम के एकदम शुरू में ही साफ़ दिख रही है। इस कार्यक्रम के चालू होते ही आंध्र प्रदेश में 27 लाख उम्मीदवार सामने आ गए। और महाराष्ट्र के 12 ज़िलों में लगभग 10 लाख। ध्यान रखें कि इसके अंतर्गत दी जाने वाली 60 रु. की मज़दूरी कई राज्यों के न्यूनतम से भी कम है। यह भी जान लें कि उम्मीदवारों की लाइन में लगने वालों में से कई किसान ऐसे हैं जिनके पास ज़मीन है। कुछ के पास तो छः एकड़ या उससे भी अधिक भूमि है। आंध्र प्रदेश के वारंगल ज़िले में 10 वर्ष पूर्व एक ऐसा किसान जिसके पास आठ एकड़ धान की खेती लायक ज़मीन हो, कुछ हैसियत वाला व्यक्ति माना जाता था। आज वही, अपने पाँच व्यक्तियों के परिवार के साथ, गरीबी रेखा के नीचे होगा। (अगर भूमिपतियों का ऐसा हाल है तो कल्पना कीजिए कि भूमिहीन मज़दूरों का क्या हाल होगा।)

अगर विदर्भ में राज्य सरकार की भूमिका वितृष्णा पैदा करने वाली है तो केंद्र की डरावनी है। वो केवल दुख ज़ाहिर करने के लिए तैयार है। जैसा कि अखिल भारतीय किसान सभा की रिपोर्ट से ज़ाहिर है, सैकड़ों ऐसी ज़िंदगियाँ बचाने के लिए के बहुत कुछ किया जा सकता है जिन्हें अन्यथा बचाया नहीं जा सकेगा। लेकिन सरकार इस रास्ते से बच रही है।

कृषि का उसका सपना निगमों के लिए है, समुदायों के लिए नहीं। और अभिजात मीडिया? एक विदर्भ सप्ताह क्यों नहीं? उन लोगों की ज़िंदगी और मौत के बारे में ब्यौरा देने के लिए जिनके द्वारा पैदा की गई कपास से वे टैक्सटाइल और फ़ैब्रीक बनते हैं जिनका ब्यौरा छापा जाता है। अगर फ़ैशन वीक में भेजे जाने वाले पत्रकारों में से एक चौथाई भी विदर्भ का ब्यौरा लेने के लिए आवंटित किए जाएँ तो उनके पास कहीं ज़्यादा कहानियाँ होंगी बताने के लिए।

अनुवादक: अनिल एकलव्य

Original Article at ZCommunications

जनवरी 9, 2009

दोपहर के खाने के बाद

(कविता – हैरॉल्ड पिंटर)

और दोपहर के बाद आते हैं सजे-धजे प्राणी
लाशों में सूंघने के लिए
और करने के लिए अपना भोजन

और तोड़ लेते हैं ये ढेर से सजे-धजे प्राणी
फूले हुए नाशपाती धूल से
और मिनेस्त्रोन-सूप हिलाते हैं बिखरी हड्डियों से

और जब हो जाता है भोजन
वे वहीं पसर जाते हैं आराम से
निथारते हुए लाल मदिरा को सुविधाजनक खोपड़ियों में

अनुवादक: अनिल एकलव्य

जनवरी 8, 2009

मैं कुछ बातें समझाना चाहूंगा

(कविता – पाब्लो नेरूदा)

फिर एक सुबह सब कुछ जल रहा था,
एक सुबह लपटें
उठ रही थीं ज़मीन से
इंसानों को खाती हुई
और फिर तब से आग,
बारुद फिर तब से,
और फिर तब से खून,

डकैत विमानों और मूरों के साथ,
डकैत अंगूठियों और डचेसों के साथ,
डकैत काले चोगे पहने आशीर्वाद छिड़काते फ़्रायरों के साथ,
आसमान से आए बच्चों को मारने के लिए
और बच्चों का खून बह रहा था गलियों में
किसी झंझट के बिना, जैसे बच्चों का खून बहता है।

सियार जिनसे सियार भी नफ़रत करेंगे
पत्थर जिनको खा कर कांटेदार पौधे थूक देंगे,
ज़हरीले नाग जिनसे ज़हरीले नाग भी घृणा करेंगे।

तुम्हारे आमने-सामने मैंने देखा है खून
स्पेन का, ज्वार की तरह मीनार जितना उठता हुआ
तुम्हें एक लहर में डुबाने के लिए
घमंड और खंजरों की

धोखेबाज़
सेनाधीशों:
मेरे मरे हुए घर को देखो,
टूटे हुए स्पेन को देखो:
हर घर से जलता लोहा बहता है
फूलों की बजाय
स्पेन के हर कोने से
स्पेन उभरता है
और हर मृत बच्चे से एक राइफ़ल जिसकी आंखें हैं
और हर अपराध से गोलियां पैदा होती हैं
जो एक दिन ढूंढ लेंगी
तुम्हारे दिल का निशाना

और तुम पूछोगे: इसकी कविता क्यों नहीं बात करती
स्वप्नों और पत्तों की
और इसके अपने देश के ज्वालामुखियों की

आओ और देखो खून को जो गलियों में बह रहा है।
आओ और देखो
खून को जो गलियों में बह रहा है।
आओ और देखो खून को
जो गलियों में बह रहा है!

अनुवादक: अनिल एकलव्य

[ नाथानिएल टार्न के अंग्रेज़ी अनुवाद से अनुवादित, पाब्लो नेरूदा: चयनित कविताएं, प्रकाशक जॉनाथन केप, 1970, लंदन। साभार द रैंडम हाउस ग्रुप लिमिटेड। ]

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